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सदमे का सिद्धांत

उदय प्रकाश


आतंकवाद एक ऐसे भय का निर्माण करता है जिसमें कोई व्यक्ति, समाज या राज्य अवसन्न, दुविधाग्रस्त, जड़ीभूत और अकर्मण्यता की अवस्था में पहुँच जाता है। भय के सामने कुछ समय के लिए उसकी हालत लकवाग्रस्त जैसी हो जाती है। कुछ समय के लिए वह `कॉमा´ में चला जाता है।

ऐसे में उससे कोई भी वह काम करवाया जा सकता है, जो सामान्य हालात में संभव नहीं हो सकते थे। ऐसी विपत्ति या संकट सिर्फ किसी मानव निर्मित विध्वंसक कार्रवाई के द्वारा ही नहीं, प्राकृतिक विपदाओं के चलते भी आ सकते हैं। बस, इसी मौके को झपटने के लिए दोनों तैयार रहते हैं - यानी आतंकवादी संगठन और फ्रीडमेन का 'विनाशक पूँजीवाद'। आतंकवादी जहाँ किसी अवसन्न और भयभीत हो चुकी सरकार से अपनी शर्तें पूरी करवाते हैं, 'विपत्तिकर पूँजीवाद' वहीं अपनी नई आर्थिक योजना प्रस्तावित करता है और उसे लागू करवाता है। फ्रीडमेन मुक्त बाजार के समर्थक राजनीतिक नेताओं को सलाह देते हैं कि किसी भी बड़ी आपदा में स्तब्ध हो चुके देश में फौरन उन कष्टकारी लेकिन लाभकारी आर्थिक नीतियों और योजनाओं को लागू कर देना चाहिए जो अलोकप्रिय हों। इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिनकी फेहरिस्त तैयार की जा सकती है। एक उदाहरण 1973 में चिले का है जब अलेंदे का तख्ता पलटा गया, जिसमें 50,000 से अधिक लोग मारे गए और 80,000 लोगों को जेल में डाल दिया गया। विश्वविख्यात कवि पाब्लो नेरुदा को भी, जिनका कविता संग्रह अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन अपनी पत्नी हिलेरी को विवाह की वर्षगाँठ में भेंट करते हैं, लगभग नजरबंदी की हालत में मर जाना पड़ा। इस तख्तापलट के फौरन बाद शिक्षा और स्वास्थ्य समेत अन्य सार्वजनिक खर्च में 50 प्रतिशत की कटौती हुई, 45 प्रतिशत आबादी भुखमरी और गरीबी के हवाले की गई लेकिन अमीरों की आय में 83 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। फाकलैंड युद्ध के बाद भी इसी 'सदमे के सिद्धांत' का सहारा लिया गया और मार्गरेट थैचर ने प्राकृतिक गैस और स्टील के सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण किया और मजदूर यूनियनों के विरुद्ध युद्ध का एलान किया। वहाँ बेरोजगारी तीन गुना बढ़ गई।

1989 में चीन के जन-असंतोष और कम्युनिस्टों द्वारा लोकतंत्र के दमन में हजारों लोग मारे गए और लाखों को जेलों में डाल दिया गया लेकिन 'विनाशक पूँजीवाद' ने वहाँ भी इसी 'सदमे के सिद्धांत' का सहारा लिया और देखते-देखते मार्क्स और माओ की साम्यवादी विचारधारा से पल्ला झाड़कर चीन ने 'मुक्त बाजार' का मार्ग अपना लिया और एशिया का नया कार्पोरेट ध्रुव बन गया। आज दुनिया का सबसे बदहाल मजदूर चीन का है। 1993 में सोवियत संघ में बोरिस येल्त्सिन ने दूमा भवन पर हमला किया, विरोधियों को जेल में डाला और देखते-देखते वहाँ एक ऐसा अर्थतंत्र बना जिसकी बदौलत 17 रूसी खरबपति फोर्ब्स की अमीरों की विश्व-सूची में शामिल हो गए भले ही वहाँ की साढ़े सात करोड़ की जनसंख्या भयावह गरीबी और भुखमरी की कगार पर पहुँच गई।

नओमी की फिल्म बताती है कि 11 सितंबर को न्यूयार्क के `वर्ल्ड ट्रेड सेंटर´ में अलकायदा के हमले के बाद जॉर्ज बुश के नेतृत्व में जो विश्ववयापी 'वार अगेंस्ट टेरर' छेड़ा गया और जिसमें इराक और अफगानिस्तान जैसे देश मलबों में बदल डाले गए, वह युद्ध के निजीकरण का एक ऐसा उदाहरण है, जिसमें जिन कंपनियों को जितना मुनाफा हुआ, उसका संक्षिप्त ब्यौरा देने में भी इस स्तंभ में जगह नहीं बचेगी। मसलन आप यही जान लें कि पेंटागॉन ने अपने बजट में ठेकेदारों के लिए 137 अरब डॉलर की सालाना वृद्धि की और घरेलू सुरक्षा के लिए निजी कंपनियों को 130 अरब डॉलर का ठेका दिया। इराक का पूरा युद्ध युद्ध के निजीकरण का नमूना था। वहाँ की 200 कंपनियों का निजीकरण किया गया। यह सूची अंतहीन है।

इस 'विनाशक' या 'विघ्नकारी' कार्पोरेट पूँजीवाद का 'सदमे का सिद्धांत' यह बताता है कि किसी भी देश और समाज के भयभीत और स्तब्ध लोग किसी अँगूठा चूसते और घुटने के बल रेंगते बच्चे की तरह ही अपने संकटमोचक के रूप में उन राजनीतिक नेतओं की ओर देखने लगते हैं, जो उन्हें उस ओर ले जाते हैं, जिधर का रास्ता वैश्विक मुक्त बाजार ने, विश्व बैंक और अन्य अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक-वाणिज्यिक संस्थानों के द्वारा पहले ही बता रखा है। इनमें से अधिकांश तो पहले से ही बिके हुए कठपुतले होते हैं।

इसीलिए 27 दिसंबर को रावलपिंडी में घटी वह त्रासदी, जिसमें बेनजीर भुट्टो का अंत हुआ, एक ऐसे विनाशक खेल की परिणति थी, जिसे अलकायदा के आतंकवादी और फ्रीडमेन का 'मुक्तबाजार' मिलकर खेल रहे थे। जिस तरह से म्यांमार में लोकतंत्र की प्रतीक आन सान सू की के नजरबंद रहने के बावजूद पर्यटन और तेल की कमाई में चीन से लेकर ब्रिटेन और हमारी सरकार तक शामिल है, उसी तरह पाकिस्तान में बेनजीर के साथ घटी मर्मांतक त्रासदी के सदमे का फायदा उठाने के लिए जो ताकतें सक्रिय हैं, उनके एजेंडे में लोकतंत्र दूर दूर तक नहीं है।

अगर 21 मई 1991 को तमिलनाडु के श्रीपेरुंबुदूर में घटी हम अपने सदमे को याद करें, जिसमें एक आत्मघाती आतंकवादी ने राजीव गांधी की जान ली, तो यह भी देखें कि ठीक उसी स्तब्धता और भयग्रस्त अवस्था में फँसे देश में उस नई अर्थनीति को दाखिल किया गया, जिसकी बदौलत फोर्ब्स की अमीरों की विश्व-सूची में 27 भारतीय खरबपति पहुँचे और दूसरी तरफ सवा लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्याएँ कीं।

अगर 27 दिसंबर को एन.टी.वी. के न्यूज चैनल में आपने पाकिस्तान की मानवअधिकार कर्मी असमाँ जहाँगीर के रोने की आवाज सुनी हो, तो मेरी तरह आपको जरूर लगा होगा कि रोने की यह आवाज लाहौर या कराची से नहीं, हमारे अपने घर और कमरे में से आ रही है।


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