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कविता

मिट्टी की काया

विश्वनाथ प्रसाद तिवारी


इसी में बहती है
मंदाकिनी अलकनंदा

इसी में चमकते हैं
कैलाश नीलकंठ

इसी में खिलते हैं
ब्रह्मकमल

इसी में फड़फड़ाते हैं
मानसर के हंस

मिट्टी की काया है यह

इसी में छिपती है
ब्रह्मांड की वेदना।

 


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