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व्यंग्य

जैसे उनके दिन फिरे

हरिशंकर परसाई


इसी में बहती है
मंदाकिनी अलकनंदा

इसी में चमकते हैं
कैलाश नीलकंठ

इसी में खिलते हैं
ब्रह्मकमल

इसी में फड़फड़ाते हैं
मानसर के हंस

मिट्टी की काया है यह

इसी में छिपती है
ब्रह्मांड की वेदना।

 


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हिंदी समय में हरिशंकर परसाई की रचनाएँ