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कविता

कोई न कोई

विश्वनाथ प्रसाद तिवारी


मै रहूँ न रहूँ
होगा जरूर
कोई न कोई

नाम बदल जाते
बदल जाते हैं रूप
मगर होता है
हर समय हर जगह
कोई न कोई

राह तो ढूँढ़नी होती है खुद
मगर कर देता है इशारा
कोई न कोई

देखना
जब कुछ भी न पड़े दिखाई
देखना
जब अँधेरा हो घना
और दम घुट रहा हो तुम्हारा
जैसे डूबते हुए आदमी का

देखना
जहाँ भी हो
वहीं

मैं रहूँ न रहूँ
होगा जरूर
कोई न कोई।

 


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