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बहुत-कुछ छोड़ना चाहता था
लकीर की तरह बढ़ना चाहता था
मगर एक वृत्त बनकर रह गया
वही-वही गलियाँ
वही-वही मोड़
वही-वही धागे
वही-वही जोड़
जीवन के सपने रह गए अधूरे
नहीं बना सका कोई भी जगह इतिहास में
जूझता रहा निरंतर आकाश से
नहीं मिली शांति
नहीं मिटी भ्रांति
व्यर्थ हो गया जीवन
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष कुछ न मिला
कितने रूपों में कितनी बार
जला है यह मन तापों में
गला है बरसातों में
मगर अफसोस है मैं बड़ा नहीं बन सका
रोटी-दाल को छोड़कर खड़ा नहीं हो सका ।
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