अंजाम जानते हो फिर भी क्यों बोते हो बीज नया मेरे शक के कीटाणु ले ये पनप कभी पायेगा क्या छलनी छलनी मैं हूँ अब कुछ भी तो ठहर नहीं पाता पत्थर से सिर फोड़ोगे जो तुमने बंजर सींचा!
हिंदी समय में दिव्या माथुर की रचनाएँ