चारों प्रहर पहरे पर रहता है तुम्हारा शक मेरी दृष्टि की भी तय कर दी है तुमने सरहद प्रणय तुम्हारा लेके रहेगा मेरे प्राण क्या मुझे मिलेगा त्राण आज़ाद है मन मेरा लेकिन तन का छुटकारा सपना है क़ैद तुम्हारी हो बेशक पिंजरा तो मेरा अपना है।
हिंदी समय में दिव्या माथुर की रचनाएँ