झोंपड़े की झिर्रियों से झर के आते झूठ ख़सरे से फैलने लगे बदन पर मेरे कितने छिद्रों को बंद करती केवल अपने दो हाथों से सच को सीने में छिपा मैं जलती चिता पर बैठ गई न रहीं झिर्रियाँ न झोंपड़ान ही झूठ!
हिंदी समय में दिव्या माथुर की रचनाएँ