काल
प्यारे दोस्त,
मैं खुश हूँ कि उपन्यास की संरचना के संदर्भ में दिए जा रहे ये विचार आपको कथानक की गूढ़ता में जाने का रास्ता कुछ यूँ बताने वाले हैं, मानो आप पहाड़ की कंदरा में छुपे तिलिस्मों में धीरे धीरे घुस रहा कोई उत्सुक खोजी हों। अब, जबकि हम उपन्यास के विस्तार के संदर्भ में कथावाचक की विशिष्ठताओं से दो चार हो चुके हैं; (जिसे कि, अकादमिक, लेकिन असहमतिपूर्ण भाषा में मैंने 'स्थानिक दृष्टिकोण' का नाम दिया है), मैं कथन के शिल्प के लिहाज से एक कतई महत्वपूर्ण पहलू, काल (समय), के मूल्यांकन का प्रस्ताव रखूँगा, जिसका बर्ताव उतना ही अहम है जितना कि कहानी की प्रबोधक क्षमता के लिए उसका विस्तार।
उपन्यास क्या और कैसी चीज है, को समझ पाने के लिए, आगे बढ़ने से पहले हमें अपने कुछ पुराने तथा झूठे पूर्वाग्रहों से बाहर आना होगा।
मैं उस साधारण से समीकरण की बात करना चाहूँगा जो वास्तविक काल (अनावश्यक शब्दों का प्रयोग न करते हुए कहें तो, ऐसा समय जिसकी क्रमिकता में लेखक और पाठक दोनों जी रहे हों।) तथा पढ़े जा रहे कथ्य के काल्पनिक समय, यानी यथार्थ से अलग का ऐसा काल अथवा 'काल वीथि', जिसकी संरचना के मुताबिक कथावाचक और पात्र दोनों ही उसमें कैद से दिखें, के बीच बनता है। उपन्यास में 'स्थानिक दृष्टिकोण' की ही भाँति 'सामयिक दृष्टिकोण' तैयार करते हुए भी कल्पना और रचनात्मकता का उतनी ही बड़ी मात्रा में इस्तेमाल होता है, हालाँकि ज्यादातर दफे लेखक इसे महसूस नहीं कर पाता। उपन्यास के वाचक और उसके विस्तार की ही तरह वह समय भी काल्पनिक ही होता है जिसमें उपन्यास अपना आकार लेता है, यह उन्हीं चीजों में से एक है जिसे उपन्यास के प्रबंध में लेखक यथार्थ की दुनिया से अलगाकर स्वतंत्र कर देता है, और जिस पर कि, मैं पुनः याद दिला दूँ, उपन्यास की प्रबोधक क्षमता निर्भर करती है।
हालाँकि, बहुतेरे विचारकों और रचनाकारों को सम्मोहित किए रहने वाले (जिनमें से एक, बोर्खेस ने अपनी अनेक रचनाओं के लिए इसी का चुनाव किया) 'काल' रूपी कथानक ने अलग अलग तरह के सिद्धांतों को उँचाइयाँ दी हैं, मेरी मानें तो उसके मामले में कम से कम इस साधारण से विभेद को तो माना ही जा सकता है कि काल के दो प्रकार होते हैं, कालक्रमिक तथा मनोवैज्ञानिक। जिनमें से पहले की मौजूदगी उसके वस्तु रूप में होती है, मानवीय आत्मपरकता से निरपेक्ष। समय के जिस प्रकार में हम आकाश में खगोलीय पिंडों की गति तथा एक दूसरे के सापेक्ष ग्रहों की अवस्थिति को मापते हैं वह कालक्रमिक समय ही होता है, वह समय भी जो जन्म के तत्काल बाद से मृत्यु तक हमारा क्षय करता रहता है और सभी चेतन मात्र की जीवन रेखाओं पर सवार हो उनका संचालन भी। लेकिन दूसरी तरफ एक मनोवैज्ञानिक काल भी है, जिसकी वजह से हम अपने क्रिया कलापों के प्रति सजग रहते हैं तथा जो हमारी संवेदना की दुनिया में अलग ही तरीके से अहमियत रखता है। ऐसा वक्त तब ज्यादा ही तेजी से बीत जाता है जब हम आकर्षण अथवा उन्माद के अत्यंत सघन अनुभवों में डूब उतरा रहे हों। जबकि दूसरी तरफ तब यह इतना लंबा और कभी न खत्म होने वाला... सेकंड जैसे मिनटों और मिनट जैसे घंटों की तरह... लगने लगता है। जब हम इंतजार अथवा किसी तरह की वेदना से गुजर रहे हों, और (अकेलेपन, देर तक के रतजगे, किसी बड़ी अनहोनी, किसी ऐसी बात का इंतजार जिसका होना या न होना कुछ भी तय नहीं है, जैसे) हालात लगातार हमें बीत रहे समय की याद दिला रहे हों, तो वह दौर, अपने झट से गुजर जाने की हमारी इच्छा के नाते कुछ अधिक ही भारी, मंद या एकदम ठहरा हुआ सा लगने लगता है।
मैं आपको आश्वस्त करना चाहूँगा कि (कथा साहित्य की उन थोड़ी और अनिवार्य शर्तों में से एक) इस नियम का कोई अपवाद नहीं है कि उपन्यास में दर्शाया वह आत्मपरक समय, जिसे (एक अच्छा) लेखक उपन्यास को यथार्थ की दुनिया से परे की चीज बनाते हुए, वस्तुनिष्ठ रूप देने में सक्षम होता है, कालक्रमिक न होकर मनोवैज्ञानिक होता है (यह ऐसी हरेक कथा रचना के लिए अनिवार्य है जो अपने आप में स्वतंत्र रहना चाहती है)।
एक उदाहरण के साथ यह ज्यादा अच्छे से स्पष्ट हो सकता है। क्या आपने एंबोर्स बिएर्स की शानदार कहानी 'An Occurence at Owl Creek Bridge' पढ़ी है? यह कहानी अमेरिकी गृहयुद्ध के समय में घटित होती दीखती है। दक्षिणी प्रांत का एक माली, पैटन फारकर, जिसने रेल की पटरी को उखाड़ने की कोशिश की थी, को एक पुल से लटका दिया जाने वाला है। कहानी उस बेचारे के गले में कस रही रस्सी के दृश्य से शुरू होती है। वह उसे मार डालने के लिए तैनात सिपाहियों से घिरा हुआ है। लेकिन जैसे ही उसके जीवन के अंत की घोषणा करता आदेश आता है, उसकी रस्सी टूट जाती है और वह नीचे नदी में गिर जाता है। किसी तरह से वह पुल और नदी के किनारे खड़े सिपाहियों की गोलियों से खुद को छुपाते और तैरते हुए बच जाता है। कहानी, अपने कथन के प्रवाह को उस वक्त पैटन फारकर के अंतःकरण के बेहद करीब से गुजारती है जब वह जंगली रास्ते से, अपने अतीत के हिस्सों को याद करता हुआ, अपने सुरक्षित घर तथा अपनी प्रेमिका की ओर बेतहाशा भाग रहा होता है। कहानी फारकर के भागने की ही तर्ज पर खौफनाक होती जाती है। घर अब सामने होता है, बिलकुल करीब, और जब वह अपनी तेज रफ्तार में ही चौखटे को पार कर लेता है, उसे प्रेमिका की देह अपने ठीक सामने दीखती है। यूँ, जैसे ही वह उसे अपनी भुजाओं में कस लेने वाला होता है, चंद लमहे पहले से कस रही रस्सी अचानक उसकी साँसों को रोक देती है। यह सारा प्रक्रम एक तेज से क्षण में खतम हो गया रहता है। यह समूचा दृश्य प्रबंध एक क्षण मात्र का है, जिसे कहानी के द्वारा विस्तार दिया गया है, जो शब्दों से रचा हुआ एक अलग ही 'काल खंड' तैयार कर लेता है, वास्तविक समय (कहानी की घटना का वस्तु समय, जिसमें अधिक से अधिक एक सेकंड भर बीता होता है) से अलग। क्या कहानी के माध्यम में मनोवैज्ञानिक समय के सहारे अपना अलग ही काल रच लिए जाने की प्रक्रिया इस दृष्टांत से स्पष्ट नहीं हो जाती?
इससे कहानी से इतर, एक और उदाहरण बोर्खेस की मशहूर 'The Secret Miracle' का है। चेक कवि जारोमिर ह्लादिक को ठीक तभी भगवान के द्वारा एक साल की आयु दे दी जाती है, जब वह मार दिया जाने वाला है। यह आयु उसे जीवन भर की तैयारियों के बावजूद न लिखे जा सके एक काव्य नाटक 'दुश्मन' को दिमागी तौर पर पूरा करने की खातिर दी गई होती है। यूँ दिए गए समय में वह अपनी उस महत्वाकांक्षी रचना को पूरा करने में सफल होता है, लेकिन इस तरह से बिताए गए पूरे वर्ष का विस्तार बस वक्त के उतने भर का होता है जितने में गोली दागने वालों का मुखिया 'फायर' का ऐलान करता है और गोली अपने लक्ष्य को पा लेती है। मतलब बमुश्किल एक क्षण। पलक का एक बार का झपकना। सभी (अच्छी) कहानियाँ अपने काल का निर्धारण खुद करती हैं, उनका एक निजी काल तंत्र, पाठक के जीवन के वास्तविक समय से कतई इतर।
उपन्यास के काल को मूलगामी तरीके से समझने के लिए, सबसे पहले उपन्यास के 'सामयिक दृष्टिकोण' को पहचानना होगा, जो ध्यान रहे, 'स्थानिक दृष्टिकोण' से अलग की चीज होती है, हालाँकि सामान्य व्यवहार में दोनों ही परस्पर जुड़ी हुई सी लगती हैं।
परिभाषा (जो साहित्य की अप्रत्याशित दुनिया के लिए जरूरी चीज न होते हुए, यकीनन आपको भी उतनी ही सताती होगी जितनी कि मुझे) के अपरिहार्य हो जाने की इस स्थिति में, हम इसे यूँ तैयार करेंगे कि किसी भी उपन्यास का 'सामयिक दृष्टिकोण' वह अंतर्संबंध होता है जो लेखक अथवा वाचक द्वारा जिए जा रहे समय तथा कहानी में दर्शाए गए समय के बीच बनता है। जबकि 'स्थानिक दृष्टिकोण' की स्थिति में उपन्यासकार के पास चुनने के लिए मात्र तीन विकल्प होते हैं (हालाँकि भेद और भी कई हैं), जिनका कि निर्धारण उस समय के आधार पर होता है जिसमें कि कहानी कही जा रही है :
(अ) लेखक अथवा वाचक के द्वारा जिया जा रहा समय तथा कहानी में दर्शाया गया समय, दोनों एक ही हो सकते हैं। ऐसी स्थिति तब होती है जब वाचक कहानी को वर्तमान काल में बढ़ा रहा होता है।
(ब) वाचक खुद को भूतकाल में स्थापित कर वर्तमान अथवा भविष्य में घट रही रही चीजें दर्शा सकता है। तथा तीसरा,
(स) वाचक खुद को वर्तमान में स्थापित कर भविष्य अथवा भूत की घटना का जिक्र कर सकता है।
हालाँकि अपने अमूर्तन रूप में ये वर्गीकरण थोड़े जटिल जान पड़ते हैं, लेकिन व्यवहार में यह ज्यादा स्पष्ट और बोधगम्य हो जाता है यदि हम थोड़ा ठहरकर पहचान लें कि वाचक ने कहानी कहने के लिए किस काल का चुनाव किया है।
उदाहरण के लिए किसी उपन्यास की बजाय एक कहानी को चुनते हैं, शायद दुनिया की सबसे छोटी (और संभवतः सबसे अच्छी कहानियों में से एक)। ग्वाटेमाला के लेखक आगुस्तो मोंतेर्रोसो की 'The Dinosaur', जिसका विस्तार एक पंक्ति भर में है -
'वह जब उठा, डायनासोर तब भी वहीं था।'
एक संपूर्ण कहानी। है कि नहीं? प्रबोधन की अप्रतिम क्षमता, उल्लेखनीय विवेक के प्रदर्शन, नाटकीयता, सांकेतिकता, रंग और स्पष्टता सभी से युक्त। इस मितभाषी कथारत्न के, दूसरे अनेक तरीकों से किए जा सकने वाले पाठ को फिलहाल के लिए खुद तक केंद्रित करते हुए हम इसके 'सामयिक दृष्टिकोण' पर आते हैं। कहानी के कहे जाने का काल क्या है? जाहिर तौर पर सामान्य भूतकाल, 'वो उठा'। मतलब वाचक, यानी लेखक उस वक्त भविष्यत् काल में है और बीते हुए समय की बात कर रहा है। लेकिन कब के बीते समय की बात? लेखक के भविष्यत् काल के सापेक्ष हाल ही के बीते या फिर धुर अतीत की बात? असल में धुर भूत काल की बात। अब यह कैसे पता चला कि लेखक के काल के सापेक्ष कहानी का समय धुर अतीत ही है, न कि हाल ही का बीता समय? क्योंकि दोनों (लेखक के भविष्यत् तथा कहानी के भूत) कालों के दरम्यान एक न भरी जा सकने वाली रिक्ति, एक अवरोध है, जो दोनों के बीच किसी भी तरह के संयोग को नकारता है। यहाँ पर लेखक द्वारा इस्तेमाल किए गए काल को कुछ इस तरह से पहचाना जा सकता है - कहानी का वर्णन एक स्थगित हो चुके अतीत का हैं, वाचक (लेखक) की स्थिति से पूरी तरह कटा अतीत। यूँ, लेखक के समय के सापेक्ष डायनासोर का समय संपूर्ण भूत काल का हुआ, यह स्थिति 'स' का उदाहरण है।
अब हम उपरोक्त तीनों स्थितियों में से (सबसे सरल, लेकिन सबसे अहम) स्थिति 'अ' के उदाहरण के हेतु, एक अलग तरीके से डायनासोर की स्थिति का सहारा लेते हैं; जिसमें कि वाचक के कहने का काल और कहानी में वर्णित काल, दोनों एक ही होते हैं। यहाँ 'सामयिक दृष्टिकोण' की माँग के अनुसार वाचक द्वारा कथा को वर्तमान काल में कहा जाना चाहिए : वह उठता है, और देखता है कि डायनासोर फिर भी वहीं है।
यहाँ वाचक के कहने का काल तथा कही जा रही कथा का काल, दोनों समान हैं। कहानी उसी वक्त में घटित होती जान पड़ती है, जब कि हम उसे वाचक से सुन रहे होते हैं। यह कहानी उस पिछली कहानी से काफी अलग है, जिसमें कि हमने दो विभिन्न काल देखे थे और जिसमें कि, बाद के किसी समय में स्थित होने के नाते वाचक के पास समय के लिहाज से कथा के लिए एक मुक्त दृष्टि आकाश था। स्थिति 'अ' में वाचक के पास कथ्य की जानकारी तथा दृष्टिकोण के लिए गुंजाइश अपेक्षाकृत कम थी क्योंकि कथा के इस रूप में तुरंत की हो रही घटना का चित्रण तुरंत ही हो रहा है। जब वाचक और कथा दोनों का वर्तमान में ही घालमेल हो जाय (जैसा कि सैमुएल बेकेट तथा एलेन रॉब ग्रिलेट के उपन्यासों में अकसर ही होता है), तो वैसी हालत में वाचक की तात्कालिकता सर्वाधिक बढ़ जाती है तथा वाचक द्वारा कहानी कहने के लिए भूतकाल का इस्तेमाल किए जाने की स्थिति में यह न्यूनतम रहती है।
आगे, अब स्थिति 'ब' की पड़ताल करते हैं, उपन्यासों में कभी कभार पाई जाने वाली और तीनों ही स्थितियों में सबसे जटिल। ऐसे में वाचक की अवस्थिति भूत में है और और कहानी तब तक के समय तक घटित नहीं हुई है, तथा हाल के भविष्य अथवा धुर भविष्य में कभी होने वाली है। इस तरह के सामयिक दृष्टिकोण के संभावित रूप कुछ इस प्रकार होंगे।
(अ) तुम उठोगे, और डायनासोर फिर भी वहीं होगा।
(ब) जब तुम उठ रहे होगे, डायनासोर फिर भी वहीं होगा।
(स) जबकि तुम उठ गए होगे, डायनासोर फिर भी वहीं होगा
उपरोक्त सभी स्थितियाँ (जो कि तादाद में और भी संभव हैं) हल्के हेरफेर के साथ वाचक के काल तथा कथा के काल के बीच की विभिन्न दूरियों को दर्शा रही हैं, लेकिन सभी के आधार में यह है कि वाचक द्वारा कथा में कही जा रही चीजें तब तक घटित नहीं हुई हैं तथा उनका घटना वाचक के कथा समाप्त कर लेने के बाद के किसी काल में होगा। परिणामस्वरूप, कथा की घटनाओं पर एक स्थायी अनिश्चितता तारी रहती है, कि आगामी भविष्य में उनका घटना सचमुच का होगा, या फिर नहीं ही होगा। ऐसी अनिश्चितता वाचक द्वारा खुद को भविष्य अथवा वर्तमान में स्थपित करके पहले की घट चुकी, या उस वक्त घट रही चीजों का जिक्र करने की हालत में नहीं होती। इस तरह से खुद को भूत में स्थापित कर कथा में भविष्य की घटनाओं का जिक्र करता हुआ वाचक न सिर्फ एक आपेक्षिकता और अनिश्चिता की बात करता है, बल्कि अपनी बात को ज्यादा ही दम के साथ, कथा संसार में अपनी ईश्वर सदृश्य शक्ति का मुजायरा करते हुए भी करता है। भविष्यत् काल का इस्तेमाल करते हुए उसकी कहानी अनिवार्य चीजों की एक श्रृंखला सी बन जाती है, आदेशों की एक ऐसी श्रृंखला भी, जिनके मुताबिक जो कहा जा रहा है, उसका होना भी तय है। कहानी में वाचक की प्रभुता उस हालत में अपरिहार्य है, जब उसकी कथा का प्रवाह इस तरह के 'सामयिक दृष्टिकोण' के साथ हो रहा है। यूँ एक उपन्यासकार बिना समुचित ध्यान दिए इस तरीके का इस्तेमाल नहीं कर सकता, वह इसका प्रयोग तब तक नहीं कर सकता जब तक कि उसका इरादा अनिश्चितता का नाजायज फायदा उठाने तथा वाचक को इस बात की छूट देने का न हो कि घटित होने की छूट सिर्फ उन्हीं घटनाओं को है, जो यहाँ, इस खास तरीके से, मेरे द्वारा कही जा रही हैं।
सभी मामलों में मान्य थोड़े बहुत विचलनों के साथ, यदि तीनों संभावित 'सामयिक दृष्टिकोण' पहचान लिए जाएँ, तथा यह समझ लिया जाय कि इस्तेमाल किए गए दृष्टिकोण की जाँच दरअसल वाचक द्वारा कहानी कहने के काल तथा कहानी के भीतर चल रहे काल की परख कर लेना है, ऐसा विरले कहानियों में ही देखने को मिलेगा कि वह सिर्फ और सिर्फ एक ही 'सामयिक दृष्टिकोण' के इस्तेमाल से कही गई है। हालाँकि, आमतौर पर एक ही तरह का दृष्टिकोण सबसे ज्यादा प्रभावी रहता है, लेकिन वाचक फिर भी (काल के बदलने के साथ) एक सामयिक दृष्टिकोण से दूसरे सामयिक दृष्टिकोण तक दौड़ लगाता रहता है। तथा यह सर्वाधिक प्रभावी तब होता है जब वाचक के अपने 'स्व' को सबसे कम अहमियत दे। यह प्रभाविता तब ज्यादा आसानी से प्राप्त होती है जब सामयिक प्रबंध (काल परिवर्तन का प्रक्रम भी एक सीमा के अंतर्गत ही हो) तथा एक से दूसरे समय में जाने के बीच एक तार्किक सामंजस्य हो, और जो कथा में मनमौजी तरीके से चमक दमक पैदा करने की बजाय उसमें एक नया आयाम जोड़े - पात्र तथा कहानी के संदर्भ में थोड़ी और सघनता, जटिल स्थितियाँ, वैविध्य अथवा गहराई लाए।
आधुनिक उपन्यासों की बात करते हुए, जैसा कि औपन्यासिक काल के साथ होता है, कि वह कभी फैलता है, कभी सिकुड़ता है, कभी ठहर सा जाता है, तथा कभी कभी बहुत तेजी से भागता है, ज्यादा तकनीकी गहराई में गए बिना हम यह कह सकते हैं कि समय के अंतर्गत कहानी का प्रवाह मुक्त आकाश में कहानी के प्रवाह जैसा होता है। कथा काल में कहानी का विस्तार मानों किसी भौतिक सीमा में होता है, उसी के अंतर्गत एक से दूसरे छोर तक, उछलते, कूदते, फिरते हुए, क्रमिक समय के बड़े बड़े टुकड़ों को बीच बीच में छोड़ते हुए, पुनः वापस जाकर छूटे समय के धागों को पकड़ लेते हुए, अतीत से भविष्य और फिर भविष्य से अतीत तक की छलाँगें लगाते हुए, उस स्वतंत्रता के साथ जो जीवन के लिए अनिवार्य मांस और रक्त तक से मुक्त है। इस तरह से, औपन्यासिक काल भी वाचक के ही तरह की एक रचना है।
अब हम औपन्यासिक समय की चंद मूलगामी संरचनाओं (क्योंकि सारी संरचनाएँ मूलगामी ही हैं, इसलिए 'मूलगामी संरचनाओं' ही) के उदाहरण देखते हैं। भूत से वर्तमान, और फिर वापस भविष्य तक जाने की बजाय, 'आलेखो कारपेंतिएर' की कहानी 'Journey to the Seed' ठीक उल्टी दिशा में जाती है। कहानी की शुरुआत उसके नायक दोन मार्सिएल, जो मरने की कगार पर पहुँच चुका बुजुर्ग है, से होती है, जिसे कि आगे हम उसके प्रौढ़, फिर जवान, फिर बचपन तथा अंत में एक पवित्र अचेतना के एहसास में जाते देखते हैं, जहाँ कि उसका जन्म लेना अभी बाकी होता है और वह तब तक गर्भ के अंदर पड़ा एक भ्रूण होता है। यहाँ कहानी का प्रवाह उल्टा नहीं होता है; बल्कि इस औपन्यासिक काल में समय का प्रवाह उल्टा है। और प्रसव पूर्व की स्थितियों की बात करते हुए हमें लारेंस स्टर्ने की 'Tristram Shandy' का उदाहरण लेना चाहिए, जिसकी शुरुआत के दर्जनों पन्ने वाचक/नायक के जन्मपूर्व की गाथा से भरे हैं, उसके गर्भाधान के व्यंग्यपूर्ण विवरण, माँ के गर्भ में उसके विकास तथा दुनिया में उसके आगमन के जिक्र से भरा हुआ। कहानी के विकास क्रम में आने वाले मोड़, जटिल स्थितियाँ, तथा खिंचाव और संकुचन आदि ने 'Tristram Shandy' के 'सामयिक दृष्टिकोण' को एक बहुत ही विलक्षण तरीके का विस्तार दे दिया है।
कथा में दो अथवा अधिक कालों अथवा 'सामयिक दृष्टिकोणों' का एक साथ समावेश भी एक सामान्य सी चीज है। उदाहरण के लिए गुंटर ग्रास के 'The Tin Drum' में, (कर्कश आवाज तथा बाजे वाले) नायक आस्कर मात्जर्थ, जो समय को खत्म कर देने के लिए बूढ़ा न होने का फैसला किए रहता है, को छोड़कर बाकी हर किसी के लिए समय आगे बढ़ता रहता है। अपने प्रबल आत्मविश्वास के दम पर वह अपनी उम्र को रोक लेता है तथा अनंत आयु का जीवन जीता है। यूँ, जबकि भगवान क्रोनोस की इच्छानुसार दूसरी सारी जीचें पुरानी, क्षरित तथा पुनः नए तरीके से विकसित होती रहती हैं, आस्कर की जीत होती है। आस्कर के सिवाय बाकी हर चीज नष्ट होती जाती है।
समय के ही नष्ट हो जाने, तथा उसके परिणाम (कथा के इतिहास के हवाले से, हर बार ही विनाशकारी) का कथानक गल्प जगत में बार बार दुहराया जाता रहा है। यह सिमोन द बोउवा के अपेक्षाकृत कम चर्चित उपन्यास 'All Men Are Mortal' में भी दिखाई देता है। अपने सर्वाधिक प्रसिद्ध उपन्यास में एक खास तकनीक का इस्तेमाल करते हुए, 'खूलियो कोर्तिसार' ने उस निर्दयी कानून पर गुस्सा जाहिर किया जिसके मुताबिक अंत के कानून का पालन हर किसी को करना है। कोर्तिसार के 'Hopscotch' को पढ़ते हुए, जो पाठक, वाचक द्वारा दिए निर्देशों की सूची का अनुसरण करेगा, वह उपन्यास को कभी भी पूरा नहीं पढ़ पाएगा। क्योंकि आखिर के दो अध्याय लगातार एक दूसरे को उद्धृत करते, उनसे जुड़ते जाते हैं। और सैद्धांतिक रूप से (न कि व्यवहार रूप में) आज्ञाकारी पाठक, एक सामयिक व्यूह में उलझा हुआ, बचने की किसी भी उम्मीद से रहित, बाकी की सारी जिंदगी उन्हीं अध्यायों को पढ़ता, और फिर फिर से पढ़ता रह जाएगा।
बोर्खेस ने एच जी वेल्स की 'The Time Maschine' के उस हिस्से को कोट किया, जिसमें एक इनसान भविष्य की यात्रा करता है और अपने इस साहसिक कृत्य के सबूत के तौर पर वापसी के समय हाथ में एक गुलाब लेकर आता है। गुलाब के इस तरह के असंभव विस्थापन ने बोर्खेस को एक बेहतरीन चीज के नमूने रूप में प्रभावित किया।
समानांतर काल का एक और उदाहरण 'आदोल्फो बिओई कासारेस' की कहानी 'The Celestial Plot' है, जिसमें विमान का एक चालक विमान में ही गायब हो जाता है, तथा बाद में फिर से प्रकट होता है और ऐसी अनोखी कहानी सुनाता है जिस पर किसी को यकीन नहीं होता; विमान के साथ वह जिस काल में उड़ा था, बाद में उससे किसी दूसरे समय में उतर गया। यूँ, उसके कथा संसार में अनेक काल एक दूसरे के समानांतर चल रहे होते हैं, अपने निजी गुण धर्मो, लोगों तथा ताल और लय के साथ। तथा उस विमान चालक के साथ हुई अप्रत्याशित दुर्घटना के सिवाय और कहीं पर भी उनका सम्मिलन नहीं होता। विमान चालक एक ऐसे ब्रह्मांड की कहानी सुनाता है जिसकी संरचना एक दूसरे से कभी न मिलने वाले ऐसे समानांतर कालों से बना एक पिरामिड है।
यूँ, इस तरह के बहुकाल प्रधान ब्रह्मांड से उलट, वाचक द्वारा सशक्त तरीके से रचा एक ऐसा भी काल होता है जहाँ वास्तविकता का क्रमिक समय तथा कथा में चल रहा समय, दोनों ही मंद पड़ते पड़ते रुक से जाते हैंय जैसा कि हम 'जेम्स ज्वायस' के लंबे उपन्यास 'Ulysses' में देख सकते हैं, जो लियोपोल्ड ब्लूम की जिंदगी के मात्र चौबीस घंटों की गाथा सुनाता रह जाता है।
इस लंबे पत्र में, इस मुकाम तक आते आते आप अपनी इस द्विधा को अब और ज्यादा नहीं दबा पा रहे होगे, जो कुछ यूँ है; लेकिन तब से आप जिस सामयिक दृष्टिकोण की बात कर रहे हैं, मुझे वह अलग अलग चीजों की मिलावट जैसा दिखता है; समय एक कथानक के रूप में (आलेखो कारपेंतिएर तथा बिओई कासारेस के उद्धरणों में) तथा समय एक शिल्प या फिर कहानी की एक तरह की संरचना के रूप में, जिसमें कि कथानक धीरे धीरे खुलता जाए (Hipscotch के कभी न बीतने वाले समय के मामले में)। यह द्विधा बिलकुल जायज है। और इसके सामने मेरे पास अपने बचाव के लिए इकलौता तर्क यह है कि चीजों का यह घालमेल मैंने जान-बूझकर किया। लेकिन सवाल यह है कि क्यों किया? इसलिए किया, कि मेरी राय में कहानी में प्रयुक्त 'सामयिक दृष्टिकोण' की पहचान करते हुए ही तुम्हें यह बात अच्छे से मालूम हो सकती है कि शिल्प और कथानक दोनों ही, किस तरीके से एक दूसरे से जुड़ी चीजें हैं। हालाँकि मैंने उपन्यास की संरचना समझाने के मकसद से, दोनों ही को निर्दयता के साथ अलग अलग कर दिया।
किसी कथानक का उद्घाटन जिस तरह एक कहानी या गल्प में होता है, असल जीवन में वैसा कभी नहीं होता, इसलिए मैं पुनः याद दिला दूँ, कि उपन्यास के भीतर का समय सायास रची गई चीज होती है। ठीक वहीं, कहानी में चल रहा समय, अथवा कहानी में चल रहे समय तथा वाचक के समय के बीच का संबंध, इस बात पर निर्भर करता है कि कहानी को किस 'सामयिक दृष्टिकोण' के प्रयोग से लिखा गया है। इसे दूसरे तरीके से यूँ भी कहा जा सकता है कि उपन्यास की कहानी उसके 'सामयिक दृष्टिकोण' पर निर्भर होती है। असल में, अपनी सैद्धांतिक बहसों की इस जहाज को रोककर जब हम मुकम्मल उपन्यासों को देखेंगे, तो हमारे सामने एक ही निष्कर्ष आएगा। हमें पता चलेगा कि उन कहानियों से हटकर किसी 'शिल्प' का अस्तित्व नहीं होता जो अपने कहे जाने के लिए प्रयुक्त शब्दों के माध्यम से उपन्यास को एक आकार देती, तथा जीवंत बनाती (अथवा नहीं बनाती) हैं।
और अब एक ऐसी चीज पर बात करते हैं जो कथा जगत की हरेक रचना में मौजूद हो। ऐसी हरेक रचना में हम ऐसे क्षणों से जरूर गुजरते हैं जब समय काफी अहम होकर पाठक की चेतना पर प्रबलता के साथ गुजरता है, उसका सारा ध्यान खुद पर केंद्रित कर लेते हुए। तथा दूसरी ओर ऐसे दौर भी होते हैं, जब काल की तीव्रता ढीली पड़ जाए तथा कहानी के उस हिस्से (कथांश) की प्रबलता भी कम हो जाए; कहानी के ये दूसरी तरह के हिस्से हमारा ध्यान खींचने में असफल रहते हैं तथा पहले ही से आभास कर ली जाने वाली एक सामान्य चीज लगते हैं। वे सिर्फ कुछ इस तरह की सूचनाएँ या व्याख्यान देते हैं तथा उन घटनाओं अथवा पात्रों को जोड़ने का काम भर करते हैं जो ऐसा न किए जाने पर अप्रासंगिक रूप से, कहानी में इधर उधर भटक जाएँगे। हम पहले तरह के कथांश को जीवंत काल (घटनाओं की सर्वाधिक तीव्रता का काल) कह सकते हैं, तथा दूसरे प्रकार को मृतप्राय अथवा संक्रमण काल। हालाँकि, यह ठीक नहीं है कि किसी उपन्यासकार की आलोचना सिर्फ उसकी रचना में उपस्थित, पात्रों और किरदारों को जोड़ते भर रहने वाले मृतप्राय काल के लिए की जाय। वे भी एक उपयोगी चीज होती हैं, क्योंकि वे कहानी में एक निरंतरता बनाए रखती हैं तथा एक दुनियावी मायाजाल बुनती हैं, जो सामाजिक तंत्र का उद्घाटन कर उपन्यास का जरूरी अंग बन जाती हैं। बिना कुछ भी 'अतिरिक्त' के, सिर्फ जरूरी चीजों के प्रयोग से, एक मुकम्मल कविता रची जा सकती है। लेकिन उपन्यास के साथ ऐसा नहीं हो सकता। उपन्यास एक विस्तीर्ण चीज है, एक लंबे (कृत्रिम) काल में पसरता हुआ, तथा एक निश्चित सामाजिक परिप्रेक्ष्य में, पात्रों के इतिहास की तरह काम करता हुआ। इसके लिए जरूरी है कि उपन्यास सूचनाप्रद, संयोजक, तथा अनिवार्य विषय के साथ अधिक तीव्रता वाले कथांश (जो समय समय पर अपनी प्रकृति को बदलते हुए कभी भविष्य तो कभी अतीत में जाकर, अप्रत्याशित गहराई अथवा पेचीदगी लाते रहें) भी तैयार करता चले, ताकि कहानी सही ढंग से आगे बढ़ती रहे।
जीवंत काल तथा मृतप्राय अथवा संक्रमण काल का मेल किसी उपन्यास के कालविन्यास का निर्धारक होता है जो कि लिखी गई कहानी का खास कालक्रमिक समय होता है, जिसे कि 'सामयिक दृष्टिकोण' के तीन विभाजनों में बाँट सकते हैं। लेकिन मैं यह साफ कर दूँ कि अब तक मैंने उपन्यास के काल के बारे में चाहे जो भी कहा है, उसने कहानी के गुण धर्म परखने की हमारी यात्रा में चाहे जितनी भी मदद की हो, चर्चा करने के लिए अभी इससे आगे भी बहुत कुछ बचता है। जो सारे के सारे तब और अच्छे से स्पष्ट होंगे जब हम औपन्यासिक उद्यम से जुड़े दूसरे पहलुओं पर बात करेंगे। अब तो हम इस न सुलझने वाली गाँठ को खोलते ही जाने वाले हैं। है कि नहीं?
मैं तो इस राह में बढ़ता ही जाने वाला हूँ, और जैसा कि तुमने ही मुझे शुरुआत के लिए उकसाया था, आगे देखते रहो...
अगली मुलाकात तक, सप्रेम,
छिपे हुए तथ्य
प्यारे दोस्त,
अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने कहीं जिक्र किया है कि लिखने के शुरुआती दिनों में ही, एकबारगी उसे लगा कि वह लिखी जा रही कहानी की केंद्रीय घटना को ही छोड़ दे (जिसके मुताबिक नायक को फाँसी पर झूल जाना था)। यूँ, ऐसा फैसला करने के साथ ही उसे कहानी कहने की नई तकनीक मिल गई, जिसका कि वह अपनी आगामी कहानियों और उपन्यासों में बार बार इस्तेमाल कर सके। यह बिलकुल ही सही बात है कि हेमिंग्वे की सबसे अच्छी कहानियाँ ऐसी खामोशी से लबरेज हैं; वाचक टुकड़े टुकड़े में कुछ कहता हुआ, मानो बार बार कहीं गायब हो जाता है, अनुपस्थित सूचनाओं को, आग्रहपूर्वक, पाठक की कल्पनाओं के माध्यम से उसके मस्तिष्क में तैयार होने देते हुए, कुछ इस तरह से कि पाठक उसे रिक्त स्थानों की पूर्ति के रूप में लेकर चलता रहे। इस तकनीक को मैं 'छिपे हुए तथ्य' का नाम दूँगा, तथा लगे हाथ यह भी साफ कर देना चाहूँगा कि, यद्यपि, हेमिंग्वे ने इसे अपने तरीके से मोड़ा तथा बहुधा इस्तेमाल भी किया, लेकिन इस तकनीक की खोज उसने नहीं की, क्योंकि यह तकनीक उतनी ही पुरानी है जितना कि खुद उपन्यास।
हालाँकि सच यह है कि कुछ आधुनिक लेखकों ने इसका उतनी ही ढिठाई से इस्तेमाल किया है, जैसे कि 'Old Man and The Sea' के इस लेखक ने। हेमिंग्वे की शानदार, और शायद सबसे अच्छी कहानी 'The Killers' को याद कीजिए। इसके मूल पर एक बड़ा प्रश्न चिह्न है; ऐसा क्यों होता है कि दो छोटी बंदूकों वाले दो बदमाश 'हेनरीज' नाम के उस छोटे से भोजनालय में आते हैं और स्वीडन के निवासी ओल एंडरसन को मारना चाहते हैं? आगे, जब नौजवान निक एडम्स उसे बताता है कि उसके पीछे दो कातिल खड़े हैं, तो क्या एंडरसन खुद को अपनी किस्मत के हवाले करते हुए, भागने से मना कर देता है, अथवा शांत रहते हुए पुलिस को सूचित करता है? कौन जाने। यदि इन दोनों सवालों के जवाब चाहिए, तो हमें, उनको निरपेक्ष वाचक द्वारा बताए कुछ तथ्यों के आधार पर खुद ही तैयार करना होगा; शहर जाने से पहले एंडरसन शिकागो का एक बाक्सर हुआ करता था, जहाँ पर उसने कुछ ऐसा (बुरा) कर डाला था जिससे उसकी किस्मत ही कुंद पड़ गई।
छिपे हुए तथ्य, अथवा कहानी का लुप्त अंश, अनावश्यक तथा मनमाना नहीं हो सकता। यह अनिवार्य है कि लेखक की खामोशी का कोई ठोस मतलब हो, कि कहानी के व्यक्त हिस्सों पर उसका निश्चित प्रभाव हो, कि कहानी से उसकी अनुपस्थिति महसूस होती हो, कि उसकी वजह से पाठक के जेहन में उत्सुकता, उम्मीद तथा कल्पनाएँ जागती रहें। लिखने की तकनीक पर हेमिंग्वे को महारथ हासिल था, जैसा कि शब्दों के किफायती इस्तेमाल वाली कहानी 'The Killers' से भी स्पष्ट है। इसकी शब्द रचना किसी हिमशैल के उभरे शिखर जैसी, जो कि कहानी के शेष वृत्तांत के चमकते आधार पर टिका हुआ, झलक जाया करता है, और फिर झट से पाठक की नजरों से छिन भी जाता है। चुप रहकर, उन इशारों भर के माध्यम से, जो तकनीक के इस्तेमाल को लेकर वचनबद्ध से, पाठक को कल्पना तथा अनुमान के सहारे कहानी में सक्रियता से शामिल हो जाने को मजबूर कर देते हैं, कहानी कहते जाना; यह उन सामान्य तरीकों में से एक है जिसके द्वारा लेखक अपनी कहानी को जीवन के करीब लाते हैं और उन्हें प्रबोधन की जबरदस्त क्षमता दे पाते हैं।
अब (मेरे हिसाब से) हेमिंग्वे के सबसे अच्छे उपन्यास 'The Sun Also Rises' में छिपे उस तथ्य को याद कीजिए। जी हाँ, वाचक जैक बार्नेस की अहमियत को। जाहिर तौर पर, इसे कहीं भी दर्शाया नहीं गया है, लेकिन उपन्यास के प्रवाह के साथ रची जा रही खामोशी, एक अजीब सी भौतिक दूरी, जैक का ब्रेट से दिली रिश्ता, जिसे कि वह प्यार करता है और वो भी उसे चाहती है, और अगर बीच में कोई ऐसी मुश्किल, कोई बाधा न आ जाती, जिसके बारे में हमें कुछ नहीं पता, तो उसके प्यार में आगे भी बढ़ चुकी होती, आदि के माध्यम से यह धीरे धीरे स्पष्ट होता जाता है। (मेरा मानना तो यही है कि पाठक, पढ़ी हुई चीज से प्रेरित होता हुआ उसे वहीं के पात्रों पर आरोपित करता है)। जैक बार्नेस की अहमियत उस तारी खामोशी, उस अनुपस्थिति में छुपी है, जिसे कि पाठक प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद जैक के ब्रेट से जुड़ जाने में देखता है। यद्यपि यह कहानी का खामोशी में रह जाने वाला हिस्सा है, लेकिन 'The Sun Also Rises' की समूची कथा उसी के आलोक में नहाई हुई है।
एक और उपन्यास 'Jealousy' जिसका मुख्य किरदार कहानी के प्रवाह से नदारद रहता है, लेकिन कुछ इस तरह से, कि उसकी अनुपस्थिति उपन्यास में हरेक पल अपना एहसास कराती रहती है। 'Jealousy,' जिसमें कि वस्तुतः कोई कथानक है ही नहीं, अमूमन किसी ऐसी कहानी का लक्षण दिखाती है जो हमारी पकड़ अथवा समझ से बाहर हो। जैसे कि पुरातत्ववेत्ताओं ने सदियों से दफन पड़े चंद पत्थरों की मदद से बेबीलोन की जगहों को फिर से बना लिया, जैसे प्राणि विज्ञानी जीवाश्मों के पैबंद जोड़ प्रागैतिहासिक डायनासोर तथा कंकालों के सहारे टेरोडैक्टिल के आकार रच डाले, हम इस कहानी को भी फिर से, अपने हिसाब से रच लेने को मजबूर हो जाते हैं। रॉब ग्रिलेट के बारे में हम खुलेआम कह सकते हैं कि उनके सारे के सारे उपन्यास इन 'छिपे हुए तथ्यों' पर आधारित हैं। 'Jealousy' में यह प्रक्रिया ज्यादा सलीके से चलती दिखती है क्योंकि, उपन्यास के कथ्य का मुकम्मल मतलब होने के लिए जो चीज अनिवार्य है, वह अनुपस्थिति, अथवा केंद्र में स्थित वह चरित्र, कहीं न कहीं अपना अपना अस्तित्व बचाए रहता तथा पाठक की चेतना में आकार लेता रहता है। और 'Jealousy' में यह अदृश्य (अनुपस्थित) चरित्र है कौन? ईर्ष्यालु पति, जैसा कि अनेकार्थी ढंग से, शीर्षक से भी स्पष्ट होता है; कोई ऐसा शख्स जिसके उपर शक का शैतान सवार रहता है, वह छुपकर अपनी पत्नी की हरेक हरकत की जासूसी करता है। पाठक निश्चित तौर पर इस बात से अनभिज्ञ है; उसे इसका पता औरत की छोटी से छोटी गतिविधियों, भंगिमाओं और खबरों तक पर सख्त नजर रखने के वाचक के सनकी उद्यम से चलता है। इस तरह से सटीक प्रेक्षण करने वाला शख्स आखिर है कौन? वह अपनी पत्नी को ही इस दृष्य उत्पीड़न का शिकार क्यों बना रहा है? उपन्यास, अपने आगे बढ़ने के साथ कहीं भी इन 'छिपे हुए तथ्यों' का खुलासा नहीं करता, और इस तिलिस्म को कहानी में बिखरे चंद सूत्रों की बिना पर पाठक स्वयं, अपने विवेक से खोलता है। रहस्य बनाए रखने के मकसद से, उपन्यास के प्रवाह में सदा खामोश रखी जाने वाली इन प्रमुख गूढ़ (छिपी हुई) बातों को, पाठक की नजर तथा उपन्यास के वास्तविक कालक्रम से अल्पकालिक तौर पर गायब चीजों से अलगाने के लिए 'पदलोपी' (eclliptic) कह सकते हैं। कहानी से अल्पकालिक तौर पर गायब चीजों की मिसाल वे जासूसी उपन्यास हो सकते हैं, जो हत्यारे की असलियत को सबसे अंत में जाहिर करते हैं। और इस तरह के तथ्य, जो बस कुछ ही समय के लिए गोपनीय, अथवा तात्कालिक तौर पर कहीं और विस्थापित रहते हैं, 'व्युत्क्रमक' (व्युत्क्रम, पद्य में प्रयोग की जाने वाली एक युक्ति है, जिसमें किसी पंक्ति के एक शब्द को सुश्रव्यता के मकसद से कहीं और विस्थापित कर दिया जाता है) कहे जा सकते हैं।
आधुनिक उपन्यासों में 'छिपे हुए तथ्य' का सर्वोत्तम मुजायरा जर्मनी के गथों पर आधारित, फाकनर की किताब 'Sanctuary' हो सकती है, जिसमें कहानी के मूल (हाथ में मक्के का भुट्टा लिए रहने वाले पोपे द्वारा अबोध टेंपल ड्रेक का कौमार्य नष्ट किया जाना) को विस्थापित करके उन छोटी छोटी डीटेल्स में घुला दिया जाता है, जो पाठक द्वारा व्याख्यान के टुकड़े टुकड़े जोड़कर वह दारुण दृश्य तैयार कराते हैं। यह उस मनहूस खामोशी की वजह से ही है, जो 'Sanctuary' में रचे माहौल से तैयार होता है; जो जेफर्सन, मेंफिस तथा कहानी के दूसरे हिस्सों को, क्रूरता, यौन शोषण, डर, पूर्वाग्रह तथा असभ्यता जैसी सभी बुराइयों की खान बनाता हुआ, बाइबिल के शब्दों में कहें तो, मानवता के ह्रास से जोड़ता है। उपन्यास में मौजूद संत्रासों की बात करें तो, टेंपल का बलात्कार सिर्फ उनमें से एक है; वर्ना तो वहाँ एक फाँसी, मनमाने ढंग से दिया प्राणदंड, अनेक हत्याएँ, नैतिक क्षय के विभिन्न उदाहरण मौजूद हैं। हमें पता है कि उनका उद्भव मानवीय नियमों के उल्लंघन में न होकर, छुद्र भावनाओं के विजयी होने तथा समूची धरती पर फैल रही नारकीय चीजों द्वारा सद्मूल्यों के परास्त होने में है - 'Sanctuary' ऐसी छिपी हुई गूढ़ सूचनाओं से खौलती रहती है। टेंपल ड्रेक के बलात्कार के अतिरिक्त टॉमी और रेड की मौत तथा पोपे की अहमियत जैसे तथ्य उस पहले से सन्नाटे के हिस्से हैं जिनका खालीपन पूर्व के क्रिया कलापों के आधार पर ही भरा जाता है, व्युत्क्रमन की प्रक्रिया में हटाए गए तथ्यों को वापस लाकर बीच बीच में जोड़ते हुए, तब जाकर कहीं पाठक घटनाओं के वास्तविक क्रम को समझते हुए कहानी का वास्तविक कालानुक्रम तैयार कर पाता है। फॉकनर, न सिर्फ इस कहानी में, बल्कि अपनी शेष सभी रचनाओं में भी छिपे हुए तथ्यों का माहिर खिलाड़ी था।
अब एक आखिरी उदाहरण के लिए, मैं पाँच सौ वर्ष पहले के, बहादुरी के किस्सों से लबरेज एक मध्यकालीन उपन्यास तक जाना चाहूँगा। 'खोआनोत मार्तोरेल' (Joanot Martorell) की लिखी 'Tirant Lo Blanc' जिसे मैं अपने बिस्तर के सिरहाने रखता हूँ। मार्तोरेल इसमें छिपे हुए - पदलोपी अथवा व्युत्क्रमक - तथ्यों से, आधुनिक काल के सबसे दक्ष उपन्यासकार की भाँति खेलता है। आइए देखते हैं कि उपन्यास के एक मूल प्रश्न, तिरांत और कारमेसिना, तथा डायफेबस और स्टेफनी द्वारा रची जा रही 'खामोश शादियों' (एक कथांश, जिसका विस्तार 162वें अध्याय के उत्तरार्ध से 163 अध्याय के मध्य तक है) के लिए कथ्य की संरचना किस तरह से की गई है। कहानी कुछ यूँ बढ़ती है; कारमेसिना और स्टेफनी तिरांत और डायफेबस को महल के एक कमरे में ले जाती हैं। वहाँ, इस बात से अनभिज्ञ होते हुए, कि 'प्लाएरदेमाविदा' (एक नाम, लेकिन शब्दशः / जीवन का अपना सुख) ताले में चाभी के छेद के रास्ते से उनकी जासूसी कर रही है, वे पूरी रात प्यार के खेल में मशगूल रहकर गुजारते हैं, तिरांत और कारमेसिना बिलकुल उन्मुक्त और सहज, तथा डायफेबस और स्टेफनी थोड़ा कम। सुबह होने पर, जब प्रेमी युगल अलग होते हैं, तब से चंद घंटो बाद ही, प्लाएरदेमाविदा यह राज खोलती है कि वह रात में ही हो चुकी उनकी गुप्त शादियों की गवाह है।
ये घटनाएँ उपन्यास में वास्तविक कालक्रमिक समय में घटती नजर नहीं आतीं, बल्कि समय के अलग टुकड़ों में, तथा व्युत्क्रमित रूप में दिखती हैं, जिसके नतीजे के तौर पर कथा का वह समूचा हिस्सा एक समृद्ध आख्यान सा लगता है। (कारमेसिना और स्टेफनी द्वारा तिरांत और डायफेबस को अलग कमरे में ले जाने के फैसले के) कथानक के बाद से ही सारा ताना बाना तैयार होता है। इस शक से, कि कहीं खामोश शादियों का उत्सव न हो जाए, स्टेफनी सोने का बहाना करती है। निरपेक्ष वाचक, वास्तविक कालक्रमिक समय में जाते हुए, खूबसूरत राजकुमारी को देखने के बाद के तिरांत के विस्मय को दर्शाता है, जब वह अपने घुटनों पर झुककर राजकुमारी का हाथ चूमता है। और यही वो जगह होती है जहाँ पहली बार दर्शाए जा रहे समय का वास्तविक कालक्रम से विस्थापन हो जाता हैर : 'और वे बुदबुदाने की आवाज में कुछ प्यार भरे शब्द बोले। जब उन्हें लगा कि समय काफी हो चुका है, वे एक दूसरे से विदा लिए और अपने ठिकानों पर वापस आए।' खामोशी का एक आकाश छोड़ते हुए, एक कुटिल प्रश्न के साथ कहानी भविष्य में छलाँग लगा देती है : 'कोई प्यार में रहा, तो कोई गम में रहा, उस रात नींद किसे आई?' आगे, वाचक, पाठक को अगली सुबह में पहुँचा देता है। प्लाएरदामाविदा उठती है, और राजकुमारी कारामेसिना के कक्ष में जाती है, तथा स्टेफनी को 'बिना छेड़े, जस का तस' छोड़ दिए जाने की मुद्रा में नजर आती है। स्टेफनी के आनंद और विलास में बाधा क्यों आ गई? प्लाएरदामाविदा के रोचक इशारे, मजाक और मीठे ताने, पाठक तक पहुँचते ही उसकी उत्सुकता को बढ़ा देते हैं। और अंत में, इस लंबी, चतुर प्रस्तावना के अंत में, प्लाएरदामाविदा बता देती है कि उसने बीती रात स्वप्न में देखा कि स्टेफनी, तिरांत और डायफेबस को उस कमरे की तरफ ले जा रही है। कथांश में सामयिक विस्थापन का यह दूसरा उदाहरण है। यह वाकया बीते दिन की शाम में वापस जाने का है, जिसमें प्लाएरदामाविदा के स्वप्न के माध्यम से पाठक यह जान पाता है कि खामोश शादियों में क्या कुछ हुआ होगा। कथांश को पूर्णता देते हुए, गुप्त ब्यौरे स्पष्ट हो जाते हैं। लेकिन क्या यह पूर्णता वास्तविक पूर्णता है? शायद नहीं। जैसा कि आपने ध्यान दिया होगा कि सामयिक विस्थापन के साथ साथ एक स्थानिक विस्थापन अथवा 'स्थानिक दृष्टिकोण' में भी एक तब्दीली दिखाई दी, खासकर इसलिए, कि खामोश शादियों का आख्यान सुनाती हुई, वह ध्वनि मूल तथा निरपेक्ष वाचक की नहीं होती। यह प्लाएरदामाविदा की आवाज होती है, जिसके कथन वस्तुनिष्ठ न होकर व्यक्तिपरक हैं (उसका स्वच्छंद और मजाकिया तरीके से व्याख्या करते जाना, न सिर्फ प्रसंग को आत्मपरकता देता हैं, बल्कि उस विस्फोट को भी टाल देता है, जो डायफेबस द्वारा स्टेफनी के शील भंग करने की दास्तान को किसी और तरीके से सुनने पर कहानी में घटित होता)। समय तथा स्थान का यह दुहरा विस्थापन, खामोश शादियों के प्रसंग में, एक में से एक निकलते चीनी बक्सों का रूप ले लेता है, माने निरपेक्ष तथा सर्वज्ञ वाचक की कहानी के भीतर एक दूसरी, (प्लाएरदामाविदा द्वारा कही जा रही) स्वतंत्र कहानी अंतर्निहित है। 'Tirant lo Blanc' नाम का यह उपन्यास, संक्षेप में कहूँ तो प्रायः चीनी बक्सों अथवा रूसी गुड़ियों की तरह एक के भीतर एक के शिल्प में रचा हुआ है। तिरांत का वर्षों तक जारी रहा शोषण तथा वह दिन जब इंग्लिश कोर्ट में चलने वाला उत्सव खत्म हो होता है, जैसी चीजों का पता कहानी के निरपेक्ष तथा सर्वज्ञ वाचक की जगह डायफेबस से चलता है, जब वह वारोइक के काउंट को कहानी सुना रहा होता है; डायफेबस, 'रहोडेस' के 'जेनोअन्स' द्वारा पकड़े जाने को उस कहानी के माध्यम से जानता है जिसे फ्रेंच कोर्ट के दो योद्धा तिरांत, तथा ब्रिटनी के राजकुमार को सुना रहे होते हैं; और व्यापारी गाउबेदी के साहसिक कारनामों का पता उस कहानी से चलता है जिसे सुनाकर तिरांत विधवा रेपोसादा को खुश करता है। इस तरह से, एक क्लासिक कृति के मात्र एक खंड के अध्ययन से यह पता चल जाता है कि, जो संसाधन और पद्धतियाँ समकालीन लेखकों द्वारा नुमाइशी अंदाज में पेश किए जाने के कारण किसी नई खोज की तरह लगती हैं, वे दरअसल हमारी औपन्यासिक धरोहर हैं, क्लासिक रचनाकारों ने जिनका पूरी आश्वस्ति के साथ इस्तेमाल किया है। आधुनिक रचनाकारों ने जो कुछ भी किया है, ज्यादातर मामलों में वह कथा साहित्य के प्राचीन नमूनों में मौजूद विशेषताओं में ही नए तरीके से रंग रोगन अथवा चंद प्रयोगधर्मी परिष्कार कर लेना भर है।
अब, मेरे हिसाब से इस पत्र को पूरा करने से पहले, (सभी उपन्यासों पर लागू होने वाली) सहज शैली की वह साधारण सी चीज परख लेनी होगी, जहाँ से इस चीनी बक्से वाली पद्धति का आविर्भाव होता है। किसी उपन्यास का लिखित हिस्सा, उसमें कही जा रही कहानी का एक छोटा टुकड़ा भर होता है; जबकि पूरी कहानी, विचार, संस्कृति, इतिहास, मनोविज्ञान, चीजों, भंगिमाओं, तथा सैद्धांतिकी जैसे कहानी को बोधगम्य बनाने वाले सभी तत्वों का अंगीकरण करती हुई, शब्द सीमा में तय की गई दूरी से बहुत आगे तक जाती है। यहाँ तक कि शब्दाडंबरों से भरपूर, मितकथ्यता से खाली, तथा अति विस्तृत उपन्यास भी, पूरा का पूरा अपने लिखित हिस्से में ही समाहित नहीं होगा।
किसी भी तरह की कथा रचना में निहित अनिवार्य पक्षधरता को रेखांकित करने के लिए, फ्रांसीसी उपन्यासकार क्लाउड सिमोन ने यथार्थवादी साहित्य के दृढ़ निश्चयी रवैये में, उसे पुनः यथार्थवादी बना देने के मकसद से, मजाकिया लहजा घुसेड़ते हुए - गिटेन्स (सिगरेट का एक ब्रांड) के एक पैकेट की व्याख्या शुरू की। उसने खुद से पूछा कि यथार्थवादी कहलाने के लिए व्याख्यान में कौन कौन सी विशेषताएँ होनी चाहिए? बेशक, पैकेट की माप, रंग, उसके अंदर की चीज, उस पर लिखी घोषणाएँ, तथा उसके बनने में इस्तेमाल हुआ पदार्थ, जैसी चीजें अनिवार्य थीं। लेकिन क्या इतना ही काफी होता? मुकम्मल तौर पर देखें तो, नहीं। ताकि विवरण से कोई छोटी सी सूचना भी छूट न जाए, विवरण में उन सतर्कताओं का भी जिक्र होना चाहिए, जो पैकेट तथा उसमें भरी सिगरेट के बनने की औद्योगिक प्रक्रिया में जरूरी थीं, तथा उसके प्रचार एवं प्रसार का वह तंत्र भी जिसके जरिए वह उत्पादक से चलकर उपभोक्ता तक पहुँच रहा है। एक बार ऐसा हो जाने के बाद, क्या गिटेन्स के पैकेट का विवरण पूरा हो पाएगा? कतई नहीं। सिगरेट का प्रयोग (उपभोग) भी कोई अलग की बात थोड़े ही है; यह (सिगरेट का पिया जाना), चलन के द्वारा व्यवहार में आई तथा आदत के कारण विकसित हुई चीज है; इसे भुलाया नहीं जा सकता है कि यह सामाजिक इतिहास, मिथक, राजनीति तथा जीवन शैली के साथ अकाट्य रूप से जुड़ी रही है। दूसरी ओर यह एक दस्तूर है - एक आदत या बुरी लत - जिस पर कि विज्ञापन तथा आर्थिक महकमों का खासा असर रहता है तथा जो इसे पीने वाले की सेहत को प्रभावित करता है। इस तरह से, वर्णन की संपूर्णता की तलाश में यदि प्रहसन के दूर दूर तक के आयाम खोजे जाने लगें, तो सबसे गैर जरूरी चीजों के मामले में भी हम समूचे ब्रह्मांड के जिक्र वाली आदर्श स्थिति की ओर बढ़ते नजर आएँगे।
कहानी के बारे में, बिना किसी शक के, एक इससे मिलती जुलती बात कही जा सकती है। यदि, कहानी की शुरुआत के साथ ही लेखक कुछ सीमाओं का निर्धारण नहीं कर लेता है (यदि उसने खुद को चंद सूचनाओं या तथ्यों को कहने से बचा लेने के लिया तैयार न कर लिया), तो उसकी कहानी शुरुआत और अंत दोनों से रहित, खुद को जैसे तैसे हरेक संभव कहानी से जोड़ती हुई, तथा अपनी संपूर्णता में निर्मूल सी बनकर रह जाएगी; कल्पना के उस अनंत आकाश में भटकती हुई जहाँ सारी कहानियाँ एक दूसरे जुड़ी हुई, एक दूजे के साथ रहती हैं।
अब यदि उस परिकल्पना में आपका यकीन है, कि एक उपन्यास - अथवा लिखावट में उतर रही कोई भी कहानी - उस संपूर्ण कहानी का एक हिस्सा भर है, जिसके अधिकांश को अतिरिक्त तथा छोड़ देने योग्य समझकर, अथवा लिखे जाने वाले प्रमुख तथ्यों के सम्मुख आड़े आने वाला मानकर, लेखक नहीं लिखता है, तो आपको पत्र में पहले बताए गए 'स्पष्ट अथवा गैरजरूरी' तथा 'छुपे हुए तथ्यों' के बीच के फर्क को समझना चाहिए। इसके उलट, कहानी की योजना में इसका एक कार्यकारी महत्व है, जिसकी वजह से कहानी से इसके बाहर रहने या विस्थापित होने का कहानी पर असर होता है, कथानक अथवा प्रयुक्त दृष्टिकोण में एक अनुगूँज पैदा करते हुए।
अंत में, मैं फिर से उस की हुई तुलना को दुहराना चाहूँगा, जिसे फाकनर की 'Sanctuary' के बारे में बात करते हुए मैंने किया था। मान लेते हैं कि उपन्यास की पूरी कहानी (लिखे तथा छोड़ दिए गए सभी तथ्यों को जोड़ते हुए), एक टोकरी है। और उसमें से अतिरिक्त तथा छोड़ देने योग्य हिस्सों तथा कहानी को एक विशेष सुगढ़ता देने के मकसद से हटाए विवरणों (छिपे हुए तथ्यों) को अलग कर देने के बाद ही, उपन्यास को एक सच्चा आकार मिलता है। इस तरह से तैयार और तराशी हुई चीज ही कलाकार की मौलिकता की अभिव्यक्ति है। इसका निर्माण बहुत से औजारों से मिलकर होता है, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि 'छिपे हुए तथ्य' उनमें सर्वाधिक इस्तेमाल किया जाने वाला बेशकीमती औजार है, जो काट छाँट का काम तब तक जारी रखता है, जब तक कि रचना को इच्छित खूबसूरती तथा प्रबोधन क्षमता वाला स्वरूप न मिल जाय।
अगली मुलाकात तक, सप्रेम
मारियो वार्गास ल्योसा
(ये दो स्वतंत्र पत्र , वार्गास ल्योसा की किताब 'Cartas a un joven novelista' ('Letters to a young novelist' यानी 'युवा उपन्यासकार के नाम पत्र' से लिए गए हैं। ल्योसा द्वारा लिखे ये पत्र , दरअसल , उस योजना का हिस्सा थे जो एक स्तंभ के रूप में सिलसिलेवार प्रकाशित होने वाले थे। उनकी यह योजना किसी कारणवश फलीभूत न हो सकी , लेकिन वार्गास को यह विचार पसंद आया और वे इस पर काम करते रहे। अंततः , वर्ष 1997 में , बारह पत्रों की यह श्रृंखला पुस्तकाकार प्रकाशित हुई। पत्रों का चयन तथा मूल स्पैनिश से अनुवाद युवा कवि-कहानीकार श्रीकांत दुबे ने किया है।)