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कविता

कुर्सीनामा

गोरख पांडेय


1

जब तक वह जमीन पर था
कुर्सी बुरी थी
जा बैठा जब कुर्सी पर वह
जमीन बुरी हो गई


2

उसकी नजर कुर्सी पर लगी थी
कुर्सी लग गई थी
उसकी नजर को
उसको नजरबंद करती है कुर्सी
जो औरों को
नजरबंद करता है


3

महज ढाँचा नहीं है
लोहे या काठ का
कद है कुर्सी
कुर्सी के मुताबिक वह
बड़ा है छोटा है
स्वाधीन है या अधीन है
खुश है या गमगीन है
कुर्सी में जज्ब होता जाता है
एक अदद आदमी


4

फाइलें दबी रहती हैं
न्याय टाला जाता है
भूखों तक रोटी नहीं पहुँच पाती
नहीं मरीजों तक दवा
जिसने कोई जुर्म नहीं किया
उसे फाँसी दे दी जाती है
इस बीच
कुर्सी ही है
जो घूस और प्रजातंत्र का
हिसाब रखती है


5

कुर्सी खतरे में है तो प्रजातंत्र खतरे में है
कुर्सी खतरे में है तो देश खतरे में है
कुर्सी खतरे में है तो दुनिया खतरे में है
कुर्सी न बचे
तो भाड़ में जाए प्रजातंत्र
देश और दुनिया


6

खून के समंदर पर सिक्के रखे हैं
सिक्कों पर रखी है कुर्सी
कुर्सी पर रखा हुआ
तानाशाह
एक बार फिर
कत्ले-आम का आदेश देता है


7

अविचल रहती है कुर्सी
माँगों और शिकायतों के संसार में
आहों और आँसुओं के
संसार में अविचल रहती है कुर्सी
पायों में आग
लगने
तक


8

मदहोश लुढ़क कर गिरता है वह
नाली में आँख खुलती है
जब नशे की तरह
कुर्सी उतर जाती है


9

कुर्सी की महिमा
बखानने का
यह एक थोथा प्रयास है
चिपकनेवालों से पूछिए
कुर्सी भूगोल है
कुर्सी इतिहास है

 


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