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कविता

कवने खोंतवा में लुकइलू

भोलानाथ गहमरी


कवने खोंतवा में लुकइलू, आहि रे बालम चिरई
                                   आहि रे बालम चिरई

बन-बन ढुँढ़लीं, दर-दर ढुँढ़लीं
ढुँढ़ली नदी के तीरे
साँझ के ढुँढ़लीं, रात के ढुँढ़लीं
ढुँढ़ली होत फजीरे
मन में ढुँढ़लीं, जन में ढुँढ़लीं
ढुँढ़ली बीच बजारे
हिया-हिया में पइठि के ढुँढ़लीं
ढुँढ़लीं बिरह के मारे
कवने अँतरा में समइलू, आहि रे बालम चिरई
                                  आहि रे बालम चिरई

गीत के हम हर कड़ी से पुछलीं
पुछलीं राग मिलन से
छंद-छंद लय-ताल से पुछलीं
पुछलीं सुर के मन से
किरिन-किरिन से जा के पुछलीं
पुछलीं नील गगन से
धरती औ पाताल से पुछलीं
पुछलीं मस्‍त पवन से
कवने सुगना पर लोभइलू, आहि रे बालम चिरई
                                   आहि रे बालम चिरई

मंदिर से मसजिद तक देखलीं
गिरिजा से गुरुद्वारा
गीता अउर कुरान में देखलीं
देखलीं तीरथ सारा
पंडित से मुल्‍ला तक देखलीं
देखलीं घरे कसाई
सगरी उमिरिया छछनत जियरा
कब ले तोहके पाईं
कवने बतिया पर कोहँइलू, आहि रे बालम चिरई
                                    आहि रे बालम चिरई

 


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