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कविता

दरबार का बाजार

सुरजन परोही


नीति वही - नेता वही
राजा वही - प्रज्ञा वही
मिट गया भेद बस
दरबार और बाजार में
कौड़ी के तीन आज बिकते हैं
फर्क सिर्फ इतना कि
कल दरबार में थे
आज बाजार में खड़े हैं।

 


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हिंदी समय में सुरजन परोही की रचनाएँ