hindisamay head


अ+ अ-

कविता

किनारों का किनारा

सुरजन परोही


किनारे पर
खड़े होकर
किनारा खोजते हैं -
दो किनारों के बीच-धारा
किनारों को तोड़ती और धोती
जलधार
लगातार
हर पल
सूरज, चाँद और धरती
एक-दूसरे से दूर-सुदूर
चाँद अपने ताप से भी
सौंपता है, शीतलता
पूर्णिमा में
चाँदनी से पूर्ण करता है
वसुधा-वक्ष
और धीरे-धीरे
ओझल हो जाता है
अपने महत्व के लिए

कभी उजाला हुआ नहीं
खुद का बनाया
खुद का मंदिर है
रंग चढ़ाया, तस्‍वीरें सजाईं
बाहर-भीतर रंग और सुगंध
फूल और हरियाली

दीवाली के दिन
मंदिर का दरवाजा खुला
जाला-ही-जाला - मकड़ी का जाला

खुद के मंदिर को
अपना-अपना कहते रहो
दरवाजा खोलकर
ईश्वर नाम लिया नहीं
मंदिर में जाला
मन में जाला
दीया जलाकर, कभी उजाला किया नहीं

 


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में सुरजन परोही की रचनाएँ