अधजली सिगरेट को बायीं हथेली में दबाए, अधखुले बटन वाले सफेद कुरते और पाजामे पहने काले फ्रेम वाले मोटे चश्मे के पीछे से छोटी लेकिन पैनी आँखों से झाँकते मृणाल सेन अपने बाएँ कंधे को चौखट से टिकाए हैं। मैं गौर से उन्हें देख रहा हूँ, देर तक। देखना मात्र कोई ऐंद्रिक क्रिया नहीं होती; देखना, दरअसल हासिल करना है अपनी धरती पर बिखरे उन रूपकों, प्रतिकों को जिनसे हमारे अनुभव संसार का विकास होता है। देखना, अंतर्भूत करना है जिससे सघन संवेदना का निर्माण और विकास होता है। मृणाल सेन भारतीय सिनेमा में एक रूपक की तरह याद किए जाने वाले फिल्मकार हैं जिन्होंने हमारी दुनिया की तमाम सुबह और साँझों के विन्यास को ठोस यथार्थ के रूपकों में रचा है। सेन की फिल्मों में सुबह और साँझ बहुत भारी और सघन होकर विन्यस्त होती है। प्रसिद्ध उपन्यासकर गैब्रियल गार्सिया मार्खेज जिन्होंने यथार्थ को जादुई रूप में रचा है, मृणाल सेन के ठोस यथार्थ से उनका गाढ़ा संबंध है। यह सबंध अंटलांटिक महासागर के दोनों पाटों पर बहने वाली हवाओं की ताजगी का है। मार्खेज और मृणाल सेन की दोस्ती हमें चौंकाती है। मार्खेज का उपन्यास और मृणाल सेन का सिनेमा दोनों दो अलग-अलग दुनियाओं की दास्तान कहती है। दोनों के यथार्थ-विन्यास में अंतर देखा जाना चाहिए। हम अंतर देखते भी हैं। बहरहाल, दो दर्जन से अधिक फिल्मों के यथार्थ सरोकारों वाले शास्त्रीय सफर में 'रातभोर' मृणाल सेन की पहली फिल्म है फिर उसके बाद क्रमशः 'नील आकाशेर नीचे', 'बाइशे श्रावण', 'पुनश्च', 'अवशेष', 'प्रतिनिधि', 'आकाश कुसुम', 'भुवन शोम', 'एक अधूरी कहानी', 'कलकत्ता 1971', 'कोरस', 'मृगया', 'ओका ओरी कथा', 'एक दिन प्रतिदिन', 'आकालेर संधाने', 'चलचित्र', 'जेंनसिस', 'एक दिन अचानक', 'सिटी लाइफ-कलकत्ता' आदि। मृणाल सेन अपनी फिल्मों के माध्यम से भारत में पसरे हुए यथार्थ के धूसर रंग को सेलूलाइड पर बिखेर देने का एक अलग सौंदर्यशास्त्र अपने कैमरे की आँख से विन्यस्त करते हैं। उनकी इस आँख में उनके अपने और हमारे समय की तमाम दरारें हैं। उन दरारों को देखना दरअसल एक स्तर पर आजादी के बाद के भारत में राष्ट्र-राज्य के चरित्र को देखना है, जो खामोशी से हमारे जीवन में धीरे-धीरे शामिल हो गया है।
मृणाल सेन (14 मई 1923) फरीदपुर नाम के एक छोटे से शहर में जो अब बांग्ला देश में है अपने जीवन की प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने अपना यह शहर छोड़ दिया और आगे की पढ़ाई के लिए आज के कोलकाता में आ गए। यहीं उन्होंने विज्ञान के रूप में भौतिक शास्त्र को चुना और उसके विद्यार्थी बने। कोलकाता में उन्होंने अपनी शिक्षा स्कोटिश चर्च कॉलेज एवं कलकत्ता यूनिवर्सिटी से पूरी की। मृणाल सेन में विज्ञान के प्रति चेतना शुरुआत से ही थी यही कारण रहा है कि वे अध्ययनकाल में ही विचार के स्तर पर वामपंथी विचारधारा से जुड़े और उसके सांस्कृतिक कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने का काम किया। मृणाल सेन कभी इस पार्टी के सदस्य नहीं रहे लेकिन सांस्कृतिक कार्यक्रमों के रूप में 'इप्टा' से जुड़ने के कारण वे अनेक समान विचारों वाले और समान सांस्कृतिक रुचि वाले लोगों के परिचय में आए और इस कारण चिंतन का एक व्यापक फलक मृणाल सेन के सामने खुला। मृणाल सेन की फिल्मों के दृश्यों में हमें यह सांस्कृतिक संपन्नता रोजमर्रे की तरह उपस्थित होने का आभास दिलाती है। मृणाल सेन का सिनेमाई दुनिया में आना एक आकस्मिक घटना की तरह रहा है। सेन जीवन की शुरुआत में दवाओं के कारोबार से जुड़े हुए थे और अपने 'बोध' के शहर कलकत्ता से दूर हो गए थे, जहाँ वे थोड़े अनमने, थोड़े परेशान थे। यह कौन जानता था कि सिनेमा के सौंदर्यशास्त्र पर एक किताब के अध्ययन से सेन सिनेमा की दुनिया में खींचे चले आएंगे। मृणाल सेन कलकता लौट आए और कलकता फिल्म स्टूडियो में ध्वनि टेक्नीशीयन के कार्य से जुड़ कर सिनेमा की बारीकी को समझने में अपने को रमा लिया था। भारतीय फिल्म का यथार्थवादी परदा मृणाल सेन के इंतजार में था। उनके आने के बाद सिनेमा का परदा सुनहरा नहीं रहने वाला था बल्कि गाँव और खेत, मिट्टी और वनस्पतियों के अपने 'होने' की उपस्थिति कराने वाला था। मृणाल सेन की अधिकांश फिल्में श्वेत-श्याम हैं, और जिन फिल्मों में रंग भरा गया है उनमें एक गाढ़ापन दिखलाई देता है। मृणाल सेन की पहली फीचर फिल्म 'रातभोर' 1955 में आई जिसका संगीत अपने समय के प्रसिद्ध संगीतकर सलिल चौधरी ने दिया था। और उसके ठीक बाद 'नील आकाशेर नीचे'आई। मृणाल सेन की पहचान 'भुवन शोम' जो 1969 में आई थी उसके प्रदर्शित होने के बाद नए सिरे से बनी। बलाई चंद्र मुखोपाध्याय की 'बनफूल' बंगाली कहानी पर बनी 'भुवन शोम' को 1969 के तीन राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। 'भुवन शोम' सरकारी अनुदान प्राप्त फिल्म थी। कम बजट में भारतीय सिनेमा को एक नई पहचान देने और सिनेमा को 'नया सिनेमा' जैसे पदबंध वाले आंदोलन से जोड़ने में 'भुवन शोम' का महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है। यह सच है कि इस फिल्म ने मृणाल सेन की आर्थिक तंगी को दूर कर दिया था और इतनी प्रसिद्धि दी कि आज तक मृणाल सेन की फिल्मों पर बात करने वाले सबसे पहले इसी फिल्म को याद करते हैं। मृणाल सेन को 'भुवन शोम' तक सीमित कर देना उनके पूरे फिल्मी अवदान को अनदेखा करना होगा। हम यहाँ उनकी अन्य फिल्मों पर बात करना चाहेंगे जिसमें 'ओका ओरी कथा' और 'अकालर संधाने' विशेष रूप से उल्लेखनीय है। कलकता पर केंद्रित उनकी तीन फिल्में उपनिवेशवादी कलकता और उसके बाद के कलकता के पूरे ढाँचे को परदे पर कलकता को सही मायने में 'होने' को हमारे सामने लाता है। मृणाल सेन की फिल्म में कोलकाता एक चरित्र की तरह और एक प्रेरणा की तरह प्रमुखता से पेश हुआ है। मृणाल सेन ने अपने समय के यथार्थ को बड़ी खूबसूरती से अपनी फिल्मों में पात्रों, उसकी मूल्य प्रणाली, उसके वर्ग के अंतर को कोलकाता शहर की सड़कों पर बुना है। कोलकाता, उनकी फिल्म में मात्र एक शहर भर नहीं है बल्कि एक पात्र की तरह है। कलकता पर बनी फिल्म को देखते हुए मिर्जा गालिब बार-बार याद हो आते हैं 'कलकत्ते का जो जिक्र किया तूने हमनशीं, इक तीर मेरे सीने में मारा के हाए-हाए'।
मृणाल सेन की अधिकांश फिल्में वामपंथी विचारधारा और उसकी राजनीति से जुड़ी हुई रही हैं। 'आकालेर संधान' जिसके पात्र अकाल पर फिल्म बनाए जाने के विषय पर लगातार बहस करते रहते हैं और अपनी बहसों में मार्क्स की रचनाओं को उद्धृत करते चलते हैं साथ ही 129 मिनट की इस फिल्म में कई हिंदी, अंग्रेजी, बांग्ला पुस्तकों की चर्चा है और अकाल से ग्रस्त तस्वीरों की निरंतर उपस्थिति है। यह फिल्म 1980 में रिलीज हुई थी। 1943 के बंगाल में हुए अकाल जिसमें चार मिलियन लोग भुखमरी और बीमारी से मारे गए थे और यह अकाल कोई प्राकृतिक प्रकोप का नतीजा नहीं था बल्कि सरकार की नीतियों की असफलताओं से उपजा हुआ मानव निर्मित अकाल था जिसमें द्वितीय विश्वयुद्ध की प्रमुख भूमिका थी। कह सकते हैं यह अकाल, युद्ध का एक उत्पाद था। युद्ध अपने साथ क्या-क्या लाता है, क्या-क्या ला सकता है इसके लिए 1943 के अकाल को एक संदर्भ की तरह देखा जाना चाहिए जैसे पश्चिम में 'प्लेग' की त्रासदी को एक संदर्भ की तरह देखा जाता है। यह अकाल भारत के लिए एक सांस्कृतिक झटका की तरह का था जहाँ से युद्ध, विनाश और मृत्यु एक त्रासदी की तरह भारत के भूगोल पर पसर गया था। कहा जाता है कि अकाल के समय कलकता की सड़कों पर अनगिनत लाशें बिखरी हुई थीं। अकाल के समय लोग अपनी बेटियों को दस रुपये में बेचने तक लगे थे। स्त्रियाँ भुखमरी की हालत में अपनी देह बेचने लगी थीं। इस अकाल को लेकर बनाई गई तस्वीरों को गौर से देखने पर मस्तिष्क में एक सन्नाटा पसरता चला जाता है। जैनुदिन आबादीन की अकाल की तस्वीरों का पाठ भी नए सिरे से किया जाना चाहिए। मृणाल सेन ने इस अकाल के संपूर्ण परिदृश्य को अपनी इस फिल्म में नए सिरे से गहरी संवेदना के साथ सिरजा है। इस फिल्म की पटकथा मृणाल सेन और अमलेंदु चक्रवर्ती ने लिखी है जिसके लिए बेस्ट स्क्रीनप्ले का राष्ट्रीय पुरस्कार वर्ष 1980 में दिया गया था। मृणाल सेन की अधिकांश फिल्मों में संगीत सलिल चौधरी ने दिया है, इस फिल्म में भी संगीत उन्हीं का है। सिनेमेटोग्राफी के.के. महाजन का है। धरतीमान चटर्जी, स्मिता पाटिल और गीता सेन ने प्रभावी भूमिका निभाई है। परदे पर बिखरते हुए अकाल के चित्रों में छोटे बच्चों की अस्थियों को देखना रोंगटे खड़े कर देने वाला है। इन चित्रों के बीच दूसरी शताब्दी की गांधार स्थापत्य शैली वाली गौतम बुध की अस्थि-पंजर वाली तस्वीर एक सांस्कृतिक विचलन पैदा करती है। मृणाल सेन की यह एक विशेषता है जो उनकी अनेक फिल्मों में देखी जा सकती है। इस फिल्म में एक स्त्री (गीता सेन) का अकेलापन अपाहिज पति के साथ इस तरह से पसरा हुआ है जैसे उसके घर में गरीबी दीवारों पर न जाने कब से टंगी है। इस अकेलेपन को स्मिता पाटिल जो इस फिल्म में अकाल पर बनने वाली फिल्म में अभिनेत्री की भूमिका करने वाली है, बांटती है। दोनों स्त्री पात्र के बीच का संवाद अकेलेपन से संवाद है जो फिल्म में बड़ी ही तीव्रता के साथ मौजूद है। पति की मृत्यु और अपनी बेटी के इंतजार में बैठी स्त्री 'आकालेर संधाने' में एक समानांतर कहानी की तरह है जिसमें जमीन पर बिछी चटाई दर्शक के दिमाग पर बहुत देर तक काबिज रहती है। फिल्म में अंधेरा, झींगुर की आवाज, पुराने मकान और अकाल ग्रस्त स्त्री जिसने अपने जीवन में कभी सवेरा नहीं देखा इस फिल्म के पूरे कैनवास को एक साथ समस्त संदर्भों में देखने को आमंत्रित करता है। मृणाल सेन ऐसे फिल्मकर रहे हैं जो न केवल अपने सिनेमाई पात्रों पर काम करते हैं बल्कि सिनेमा के पूरे पर्दे पर एक कोने से दूसरे कोने के कोण पर काम करते हैं। फिल्म के आखिर दृश्य में एक स्त्री पूरे परदे पर उपस्थित होती है जिसका बच्चा मर गया है, पति खो गया है और वह स्त्री परदे पर धीरे-धीरे लांग शॉट, प्रति लांग शॉट में परदे के ठीक बीचोबीच एक चिह्न, मात्र एक चिह्न में रूपायित हो जाती है। किसी भी तरह के अकाल में सबसे अधिक प्रभावित होने वाली एक स्त्री की तरह।
मृणाल सेन की एक और महत्वपूर्ण फिल्म 'ओका ओरी कथा' (The Marginal Ones, एक गाँव की कहानी) है। यह फिल्म तेलुगू भाषा में अंग्रेजी सबटाइटल्स के साथ 1977 में आई। इस फिल्म की कथा में प्रेमचंद की मशहूर कहानी 'कफन' को नरेट किया गया है, तेलुगू समाज के गाँव में इस कहानी के विन्यास को रेशे-रेशे में देखना एक अलग अनुभव है। हम यहाँ कफन कहानी के संदर्भ से कोई बात नहीं कर रहे हैं बल्कि 'ओका ओरी कथा' के विन्यास पर विचार कर रहे हैं। 113 मिनट 44 सेकेंड की इस फिल्म में जो गाँव पसरा हुआ है, उसका भूगोल भारत के किसी भी हिस्से का हो सकता है और इसके मुख्य पात्र वेंकय्या (वासुदेव राव), किस्तइय्या (नारायण राव), निलम्मा (ममता शंकर) और जमींदार (भद्रा रेड्डी) के विन्यास का भूगोल किसी भी भू-खंड का हो सकता है। वेंकय्या और किस्तइय्या पिता-पुत्र हैं (कफन में घिसु-माधव), दोनों अधनंगे हैं, रात के अंधेरे में खेत से आलू चुराते हैं, बगीचे से आम चुराते हैं, अपनी झोपड़ी में बारिश की रात में टाट ओढ़े भींगते हैं। इस सिनेमा के संपूर्ण ढाँचे में वेंकय्या एक खूंखार व्यक्ति की तरह मौजूद है जैसे उसने अपनी गरीबी को गरीब कर देने की कसम खा ली हो। वेंकय्या, जिसके आगे के दो दाँत टूट गए है, बाल इस प्रकार बिखरे हैं जैसे कई बरसों से उसने कँघी न की हो। अपने बेटे किस्तइय्या के शादी करने के फैसले पर कुपित है। कुपित होने का कारण यह दिखलाई देता है जैसे इस कि शादी का होना उसकी गरीबी का मजाक उड़ाना है। शादी के बाद की पहली रात के प्रेम प्रसंग इस फिल्म के ढाँचे में निलम्मा को एक ऐसे स्त्री के रूप में चित्रित करता है जैसे इस दुनिया में स्त्रियाँ बिना किसी से कोई शिकायत किए जिंदा रहने के लिए अभिशप्त कर दी गई हों। प्रेम के छोटे-छोटे क्षण इस फिल्म को एक नया अर्थ देते हैं। इस पूरी फिल्म में गाँव का जो धूसर रंग है, वह फिल्म में एक अलग शास्त्र रचता है। शोषण के छोटे-छोटे चिह्न इस फिल्म में पसरे हुए हैं। किस्तइय्या जमींदार के ताड़ के पेड़ से ताड़ के बड़े-बड़े पत्ते तोड़ लाता है जिससे वह अपनी झोपड़ी के छप्पर को बरसात के मौसम के आने से पहले ठीक कर ले। जमींदार आकर वह भी छीन ले जाता है। निलम्मा कातर हो देखते रह जाती है। निलम्मा गर्भवती होती है और इस अवस्था में भी वह अपने ससुर और अपने पति के भरण-पोषण का इंतजाम करती रहती है। पानी भरती है, जलावन की लड़की इक्कठा करती है। वह अपने ससुर को फटकारती भी है। वह अपने होने वाले बच्चे को बचाने के लिए चावल बनाकर खाती है और अपने भूखे पति और ससुर के कोप का भाजन बनती है। वह कहती है कि मेरे पेट में बच्चा पल रहा है इसलिए उसका खाना दरअसल उस संभावना के लिए है जो उसकी पेट में पल रहा है। जिस पर किस्तइय्या का तो ध्यान है लेकिन वह भी अपने पिता के ड़र से कुछ नहीं बोलता है। बाद में प्रसव से पूर्व दर्द से कराहती है, किस्तइय्या चिंतित होता है लेकिन उसका पिता इससे बिल्कुल बेपरवाह है और किस्तइय्या को भी आराम करने की सलाह देता है। दर्द से कराहती निलम्मा सुबह होने तक मर जाती है। किस्तइय्या सुबह उठकर अपनी पत्नी को जगाने के लिए झकझोरता है, वह मर चुकी होती है। 45 सेकेंड का यह दृश्य 'ओका ओरी कथा' फिल्म का सबसे भारी समय है। सिनेमा के इस समय में इतनी दरारें हैं कि हम इन दरारों में आजादी के बाद के कई गाँवों की तस्वीर बड़े ही साफ तरीके से देख सकते हैं। यह देखना भारत में खाद्य सुरक्षा बिलों के बाद भी लगा रहेगा। किस्तइय्या अपनी पत्नी के मरने के बाद अपने पिता के साथ उसके अंतिम संस्कार के लिए बैठा है, हाथ फैलाए। उसके हाथों में धीरे-धीरे सिक्के जमा हो रहे हैं, उधर निलम्मा के शव पर मक्खियाँ बैठ रही हैं। सिक्के की खनखनाहट बढ़ती जा रही है और शव पर मक्खियों की भिनभिनाहट भी। वेंकय्या ठहाके मार कर हँस रहा है। उसका हँसना भयभीत करने वाला है, वह एक साथ अपने समय पर, अपनी गरीबी पर, सिक्के देने वाले लोगों पर और दर्शकों पर सभी पर एक साथ हँसता हुआ दिखलाई देता है। क्लोज अप में निलम्मा के शव जिस पर मक्खियाँ भिनभिना रही हैं, हमें भीतर तक हिलाकर रख देता है। बाप-बेटे सिक्के इकट्ठा कर पेड़ के नीचे बैठ जाते हैं। वेंकय्या सिक्कों को अपनी हथेली में कसकर पकड़े हुए अपने बेटे से कहता है वह भी इन हथेलियों को जोर से दबाकर रखे। इससे वह दो बोरी चावल खरीदेगा, थोड़े कपड़े और एक घर बनाएगा ताकि उसके बच्चे रह सकें सुरक्षित। शव के गर्भ में भ्रूण धीरे-धीरे काला होता जा रहा है, काला और काला। इस फिल्म के विन्यास में फ्रेम दर फ्रेम जो दारुण्य गरीबी हमारे आँखों के सामने फैलती जाती है वह कोई करुणा या दया भाव उत्पन्न नहीं करती न ही निलम्मा की मृत्यु किसी मातम की तरह हमारे सामने आती है बल्कि वह एक शोक गीत की तरह आती है जिसे मृणाल सेन की पैनी आँख ने इसे प्रेमचंद के कथा विन्यास को विस्तार देते हुए हमारे जीवन के पर्दे पर ठोस तरीके से उतारा है। इस फिल्म का स्क्रीन प्ले मोहित चटोपाध्याय ने लिखा है और सिनेमेटोग्राफी के.के. महाजन ने की है संगीत की जिस विलक्षण ध्वनि को इसमें मृणाल सेन ने पिरोया है उसे विजय राघव रेड्डी ने तैयार किया है। 'भुवन शोम' का संगीत भी इनके द्वारा दिया गया है। चटोपाध्याय आर्ट फिल्म्स ने 'ओका ओरी कथा' के वितरण का जिम्मा लेकर हमारे सामने एक उत्कृष्ट फिल्म को सामने लाने का काम किया है और इस मिथक को तोड़ा है कि फिल्म का वितरण केवल पूंजी के उगाही के लिए किया जाता है। इस फिल्म को आंध्र प्रदेश सरकार ने 1977 में नंदी बेस्ट फीचर फिल्म का पुरस्कार और इसी बरस नेशनल अवार्ड भी मिला।
मृणाल सेन के सिनेमाई दौर का प्रमुख हिस्सा भारत में खासकर बंगाल में नक्सलवादी आंदोलन के दौर का रहा है। उनकी फिल्मों की राजनीतिक आवाज वामपंथी आवाजों के समानांतर चलती हुई दिखलाई देती है। इस दौर में मृणाल सेन की लगातार कई ऐसी फिल्में आईं जिसमें उन्होंने मध्यमवर्गीय समाज और समाज के तमाम दरारों में पनपते असंतोष और बेचैनी को आवाज दी है। यह कहा जाता है की मृणाल सेन की सिनेमाई सृजनात्मकता का सबसे महत्वपूर्ण समय यही था। भारत सरकार ने मृणाल सेन को 1981 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया और 2005 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार प्रदान किया गया। सत्यजित राय और ऋत्विक घटक के साथ मृणाल सेन भारतीय सिनेमा के भूगोल में एक ऐसा त्रिकोण रचते हैं जिसमें दुनिया के हर हिस्से की फिल्में कहीं न कहीं समोई हुई लगती हैं। यह पहचान भारतीय सिनेमा की अपनी पहचान है जिसमें अपना गारा, अपना सीमेंट लगा है। कहा जाता है कि मृणाल सेन की फिल्म पर इतालवी, जर्मन, फ्रेंच सिनेमाई दर्शनों का प्रभाव है। मृणाल सेन की फिल्मों को देखकर लगता भी है लेकिन इनकी फिल्मों के भूगोल में पात्रों की गतिकी, ध्वनि, संगीत, और शब्द संवाद एक सीध में भारतीय मानस तक गैर व्यावसायिक तरीके से पहुँचती हैं। चिड़ियों की उड़ान भरती एक कतार की तरह। साँझ को अपने घोंसले में लौटने की बेकरारी में समवेत ध्वनि की तरह। मृणाल सेन की फिल्मों को देखे जाने से ज्यादा महत्वपूर्ण सुना जाना है। ध्वनि का खास स्थान मृणाल सेन की फिल्मों में है, दरअसल राबर्ट ब्रेसां के इस कथन की तरह ध्वनि मृणाल सेन की फिल्मों में है, 'खामोशी संगीत के लिए अनिवार्य है और संगीत का हिस्सा नहीं है। संगीत खामोशी पर अवलंबित है।' दरअसल मृणाल सेन की फिल्मों की ध्वनि मस्तिष्क और हमारी संवेदना के तहखाने संचित होती जाती है और सिनेमा से बाहर के समय में बार-बार निकल-निकलकर हमें हमारे समय के दरारों की याद दिलाती हुई बेचैन करती रहती है। हमारे समय के दरारों में हमारा चेहरा अपराध बोध के साथ झाँकता है। दरअसल, मृणाल सेन का सिनेमा हमें महज एक दर्शक रहने नहीं देता बल्कि वह उसका भागीदार/साझेदार बना देता है, लगता है कि सिनेमा में घटने वाली घटनाओं की जिम्मेदारी हम पर है। निलल्मा की मृत्यु का कारण हम स्वंय हैं। मृणाल सेन की फिल्मों को हमें एक पाठ की तरह देखना/पढ़ना चाहिए। आगामी समयों में देखे जाने वाले एक बेचैन स्वप्न की तरह मृणाल सेन की फिल्में संभावनाओं से भरी हैं। उनकी फिल्मों को देख लेने के बाद यह लगता है कि उनकी फिल्मों में विन्यस्त समय जल्द से जल्द खत्म हो जाए।