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मैं फिर से मरती रहती हूँ।
नसें निढाल होकर, खुल जाती हैं
सोए हुए बच्चों की
नन्हीं मुट्ठियों की तरह।
पुरानी कब्रों की यादें,
सड़ता मांस और कीड़े
मुझे यकीन नहीं दिला पाते
चुनौती के लिए कितने ही बरस
और उदासीन शिकस्त बस गए
मेरे चेहरे की झुर्रियों की गहराई में।
मेरी आँखों को धुंधला कर देते हैं वे, फिर भी
मैं मरती रहती हूँ,
क्योंकि मुझे जिंदगी प्यारी है। |
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