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कविता

सौ टंच माल

सुनीता जैन


बाजारों की भीड़ में
चलते-चलते किसी का बेहूदा हाथ
धप्पा देता है उसकी जाँघों पे
कोई काट लेता है चिकोटी
वक्ष पे

कोई टकरा कर गिरा देता है
सौदे का थैला
फिर सॉरी-सॉरी कह उठाता है
फिल्मी अंदाज में

कोई भींच लेता है स्तन उसका
दायाँ या बायाँ मुट्ठी में, मेट्रो या
लिफ्ट से बाहर निकलते

कोई गिरता है बार बार
उसके कंधे पर
हिचकोले खाती बस में,
कोई सट लेता है खड़े-खड़े
अनजान बना, अनदेखे
कोई कहता है 'सौ टंच माल' उसे

कोई करता है रात में 'कॉल' उसे
(कैसा पाया नंबर! पता नहीं।)
कोई धमकाता है, 'मान जा ससुरी, ऐश करेगी...'

कोई फिल्मी धुन सुनाता है -
'चोली के नीचे क्या है...'
पुलिस वाले उसे दिखते हैं
केवल नचनिए, ढीली बेल्ट की
पेंट हिलाते, ड्यूटी पे सीटी बजाते
अब वह डरने लगी है
भीतर ही भीतर उसके
घिग्घी-सी बँधने लगी है

नहीं देती कभी अब,
गाली किसी लफंगे को
नहीं कहती 'बदतमीज'
या 'शर्म नहीं आती तुझे...'

उसने देखी हैं अखबारों में तस्वीरें
तेजाब जली लड़कियों की
उनकी अंधी आँखें घूरती हैं उसे
उनके मुँह बिना होंठ के

रोटी बेलते रुक जाते हैं हाथ उसके
कैसे पहुँचाया होगा बेलन
औरत के पेट में!

सोचती है छोड़ दे नौकरी
छुड़वा दे बेटी की पढ़ाई
सुरक्षा में रहे किसी पर्दे की -
घर पर ही सीने लगे कपड़े पड़ोस के
या चौका बासन करे -
ढाँप कर रखे मुँह मुनिया का
सिर पर की चुन्नी या पल्ले से

वह रह-रह घिन्नाती है अपने मादा होने से -
इस बुजदिल, बदबख्त समय में।

 


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