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कविता

तरुणी

सुनीता जैन


मिथिला से छपरा तक,
बनारस से बलिया तक,
टालीगंज से बालीगंज तक,
देवरिया से विदिशा तक,

बैठी है तरुणी -
हर साल जने बच्चों को
सालों साल सँभालती।

सारा गाँव मर्दों से खाली।
छोटा देवर भी
जाने की तैयारी में।
सौ पचास के फेर में
घर-घर से गया आदमी।
कभी आती है लाश उसकी
अफगानिस्तान से -
कभी इराक से खबर
लापता होने की -
कभी खो जाता वजूद उसका
नौ-ग्यारह के मलबे में,

कभी सो जाता वह समुद्र की
डूब गई कश्ती में।
लेकिन ज्यादातर
अपनी नई बीवी
और बच्चों संग
होता व्यस्त किसी चाल में।

रहता है 'काली' संग अमरीका में
वीसा की खातिर -
ब्याहता है वृद्धा को, इंग्लैण्ड में
बसने की खातिर -
जर्मन मालकिन की सेवा करता
जेल से बचने खातिर -
दिन में बर्तन
रात में बिस्तर माँजता आदमी।

तरुणी नहीं जानती कहाँ
खोजे उसे -
नहीं बैठी वह कभी जहाज में,
नहीं जानती टिकट
या विदेसिया के बारे में।

कभी कभार आए पैसे से
वह पोसती है बेटा
जिसकी रगबत कुछ ठीक नहीं।
और पोसती है दो
छोटी-बड़ी लड़कियाँ अपनी।

कल घर के बाहर दिखे
कुछ गैर किस्म के आदमी।
ऐसे ही आए थे परसाल भी।
मिली नहीं फिर धनिया की राधा,
न होरी काका की लिछमी,
कहाँ छुपा आए, तरुणी
ताड़ सी उम्र चढ़ रही गौरा अपनी

'राम जी, अगले जन्म हमें
पेड़ बना दीजो,
कीट पतंग या ढोर बना दीजो,
चिड़िया, दादुर, मोर बना दीजो,
पर अबला का फिर साप न दीजो'

संखिया की टोह में, रो रही तरुणी।

 


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