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कविता

विदाई

सुनीता जैन


1 .

बहुत दिन बाद लौटी थी
मेरे दिल की धड़कन,
मेरी आँख की रोशनी -
मेरी बेटी-अचानक अकेली
विदेश से,
जैसे लौटे हैं मेरी कविता में
भाषा के ये सबसे पुराने सबसे भरोसेमंद
उपमान।

पूरे सात दिन वह बरसी
मेरे आँगन में पूनो के चाँद सी,
कोयल की कूह-कूह सी,
ओस की उजली कणी सी।

उड़ती रही, अलसाई तितली सी
मेरी सरसों में यहाँ वहाँ।
आज चलने लगी तो
कहा किसी ने,
बाँध लो इसको यहीं,
जाने नहीं देना वापिस।
और मैं चौंक गई -
नहीं!
ऐसी कुछ भी तो इच्छा नही जागी।

यह आई
जैसे किसी देवता ने दिया
देर से किसी पूजा का फल,
जैसे याद आया किसी पुराने गीत का
उनमान।

पर यह मेरी तो नही अब,
न ही यह दुनिया ही इसकी।
ये लौटे,

यह लौट रही -
लौट मेरी बच्ची,
जहाँ तेरी प्रतीक्षा में अकुला रहा
तेरा अपना बेटा,
तेरी अपनी बेटी!


2 .

उसे अच्छी लगती हैं
रसभरी, बेर,
भुने चने,
और करारी मूँगफली।

हम खोज कर लाए
रसभरी-पीली और पकी।
लाये, गोल वाले बेर-छोटे।
लाये बारिश में सीलने से बचा कर चने,
और तेज सिकी मूँगफली।

उसकी ये प्रिय वस्तुएँ
जो मिलती नहीं उसके शहर में,
रखी हैं बाकी बची,
यहाँ-वहाँ।

कल रात वह वापिस
अपने घर,
अमरीका चली गई।


3 .

विदा होने को बार बार
घर आती हैं बेटियाँ।

कभी सदूर पढ़ाई करने
विदा होती हैं वे,
और लौटने पर वैसी नहीं होतीं।

कभी अपना घर बसाने
विदा होती हैं वे,
और लौटने पर वैसी नहीं होतीं।

कभी शिशु को जन्म देने
विदा होती हैं वे,
और लौटने पर वैसी नहीं होतीं।

हर बार, हर बार
आप विदा करते हैं
अपनी एक अलग बेटी,

और सोचते हैं

कितनी बार चिर सकता है आखिर,
एक दिल
कितनी बार लेकर बैठेंगे आप
यादों की सुई, आसीसों की रील

फिर भी आप चाहते हैं
कि आती रहें घर
बार-बार,
विदा होने को बेटियाँ

 


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