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कविता

हे राम

सुनीता जैन


कितना कुछ जानते थे
गांधी जी के बंदर

वे कहते रहे, 'सुनोगे
तो देखने दौड़ोगे'

देखोगे तो बोलोगे ईं ईं ईं...
और फिर पड़ेंगे पत्थर
रोओगे तब छत पर चढ़कर
कीं कीं कीं...'
'न सुनो, न देखो, न बोलो भई...'

लेकिन किसी ने सुना नहीं
बंदरों को
देखा नहीं उन्हें
वे बस बोलते रह गए ईं ईं ईं
खाते रहे पत्थर
रोते रहे हीं हीं हीं...

कहा था अज्ञेय ने भी
कि देखने से रुष्ट होते हैं देवता
देते हैं दंड कड़ा
होते हैं आप तब अपराधी

अपराध होता रहा हमसे
रहा न गया देखे बिना प्रत्यक्ष को
सुना कानों ने सच और झूठ को
कहा लेखनी ने
दौड़ दौड़ कर पृष्ठों पर

अब बैठे हैं चुप हम
कानों को भींचे
आँखें मींचे
और होठों पर कस
अपने ही हाथों को -

बहुत याद आते हैं गांधी जी -
उनके सीने पर दनदनाती गोली
उनके मुख से वह अंतिम बोली,
हे राम!


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