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स्त्रियाँ एवं रंगमंच : पारसी रंगमंच से नुक्कड़ नाटकों तक का सफर

सुप्रिया पाठक


दक्षिण एशियाई सांस्कृतिक इतिहास में 'पारसी रंगमंच' का महत्वपूर्ण स्थान है। इस शब्द का प्रयोग आमतौर पर उस छोटे से पारसी समुदाय को संबोधित करने के लिए किया जाता है, जिसने आधुनिक और शहरी जनता में प्रचलित मनोरंजन की परंपरा को जन्म दिया। इस शब्द का अपना सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक महत्व भी है क्योंकि पारसी रंगमंच के उदय के उपरांत ही सार्वजनिक रुप से अति लोकप्रिय रंगमंच का पहला चरण शुरू होता है। भारत की अच्छी खासी जनसंख्या 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध और 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में इस लोकप्रिय नाट्य परंपरा का हिस्सा बन चुकी थी।

हालाँकि इस आलेख का उद्देश्य पारसी रंगमंच का इतिहास अथवा उसकी प्रासंगिकता का गहरा अध्ययन करना नहीं है बल्कि इसके माध्यम से लोकप्रिय रंगमंच की दुनिया में स्त्रियों के प्रवेश के रोचक इतिहास एवं उनके द्वारा इस क्षेत्र में आने के लिए किए गए संघर्षों तथा परिस्थितियों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करना है। पारसी रंगमंच में महिलाओं के प्रवेश एवं उनकी भूमिका को लेकर अत्यंत मतभेद रहे और कई बहस-मुबाहिसों के उपरांत ही इस दुनिया में महिलाओं का प्रवेश संभव हो सका। विगत 150 वर्षों का रंगमंच का इतिहास स्त्रियों के लिए जहाँ एक तरफ अत्यंत संघर्षपूर्ण रहा, वहीं इसने उनके लिए सशक्त माध्यम का भी कार्य किया।

1950 के दशक के बाद जनवादी नाट्य समूहों के जरिए स्त्री विषयक मुद्दों को आम जनता के समक्ष प्रस्तुत किया जाने लगा था, परंतु इन सबकी आधार-भूमि पारसी रंगमंच के जरिए ही तय हो पाई। इस रंगमंच की शुरुआत एक ऐसे दौर में हुई जब भारत में राष्ट्रवादी विचारधाराओं की लहर एवं उनका प्रभाव समाज पर व्यापक रुप से पड़ रहा था। यह वह दौर था जब राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में भारत की संस्कृति एवं उनसे गहरे तौर पर जुड़े 'स्त्री-प्रश्नों' पर सभी राष्ट्रवादी धाराएँ प्रतिक्रिया व्यक्त कर रही थीं। 19वीं सदी के बंगाल पुनर्जागरण के दौरान समाज सुधार के आंदोलनों के केंद्र में भी 'स्त्री प्रश्न' था। राजा राम मोहन राय द्वारा सती प्रथा का विरोध और ईश्वरचंद्र विद्यासागर के नेतृत्व में विधवाओं के पुनर्विवाह के पक्ष में चलाए गए अभियान इस दौर की पहचान हैं। पार्थ चटर्जी ने इस विषय पर विचार करते हुए राष्ट्रवाद और स्त्री प्रश्नों के समीकरण की व्याख्या की है। उनका मानना है कि राष्ट्रवादी परियोजना ने औपनिवेशिक राज्य के साथ राजनीतिक अधिकारों के लिए संघर्ष में जाने से काफी पहले ही सांस्कृतिक संप्रभुता के एक स्वायत्त क्षेत्र का निर्माण कर लिया था। जहाँ 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में समाज-सुधारकों ने धर्म और समाज सुधार के लिए औपनिवेशिक शासकों के कानूनी-तंत्र की मदद ली, वहीं 19वीं सदी के अंतिम दशकों में नए मध्यवर्ग से बने राष्ट्रवादी नेतृत्व ने एक ऐसे सांस्कृतिक दायरे का निर्माण किया जो औपनिवेशिक शासन के हस्तक्षेप से मुक्त संप्रभुता का दायरा था। पार्थ चटर्जी की दृष्टि में सामाजिक संस्थाओं और व्यवहारों को राष्ट्रवाद ने दो हिस्सों में बाँटा। उसकी परियोजना में भौतिक दायरा बाहरी है, आध्यात्मिक दायरा भीतरी। उनके अनुसार, भौतिक दायरे में अर्थव्यवस्था, राजकाज, विज्ञान, तकनीक आदि आते हैं जिनमें पश्चिम की श्रेष्ठता स्वीकार्य है। जिसे सीख कर दक्ष बनना है ताकि पश्चिम का उसकी ही जमीन पर मुकाबला किया जा सके। दूसरी ओर, आध्यात्मिक दायरा भीतरी है, सांस्कृतिक अस्मिता का क्षेत्र है, जहाँ भारत की पश्चिम पर श्रेष्ठता स्वयंसिद्ध है।

पारसी हिंदी रंगमंच में डॉ लक्ष्मी नारायण लाल इस समय कि विशेषता बताते हुए कहते हैं कि इस पूरे काल का लोकमानस बड़ा ही विचित्र और अंतर्विरोधों से भरा पड़ा था। एक तरफ जहाँ यह नएपन के लिए व्याकुल था, वहीं दूसरी ओर अपने आपको महान प्राचीन और गौरवमयी अतीत से बांधे भी रखना चाहता था। एक ओर यह जातीय परंपरा और एक नए राष्ट्रबोध के स्वप्नों में डूबा था, दूसरी ओर यह नवोत्थान आंदोलन के फलस्वरूप अपने को असीम व्यापक मानवता में फैलाकर देख रहा था।

" वह नया जनमानस जो नए मेट्रोपोलिटन नगरों (बंबई, मद्रास, कलकत्ता) में पैदा हुआ था, नए उद्योगों, नए व्यापार, नए बाजार में जो नया मन पुराने से थका हुआ बिल्कुल नए की तलाश में था, जो मानस नई अंग्रेजी शिक्षा-दीक्षा एँव नवोत्थान के नशे में डूबा हुआ था, जिसने अब अंग्रेजी के थिएटर को देखा था ओर उसी तरह की कोई नई चीज देखना चाह रहा था, इसी जनमानस का एक दूसरा उदाहरण था जो ऐंग्लो सेक्शन सभ्यता के संपर्क और प्रभाव में आकर पश्चिम मध्य पूर्व और सुदूर पूर्व की जिंदगी, उसकी तवारीख, उसके हीरो-हीरोइन, उसके रोमांटिक किस्से और जंग-मुहब्बत के किरदार तथा नए अफसाने देखना चाह रहा था। पारसी थिएटर ही संयोग से इस दूसरी आकांक्षा का पूरक संस्थान बना। यह एक अमिट ऐतिहासिक सत्य है।" 3

पारसी रंगमंच का दक्षिण एशियाई देशों में लोकप्रिय रंगमंच तथा सिनेमा के विकास में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। साथ ही यह भी एक अबूझ पहेली है कि पारसी रंगमंच ने किस प्रकार लैंगिक तथा नस्लीय पहचानों को अपनी वेशभूषा, साज-सज्जा तथा संवादों के जरिए नए रूप में प्रस्तुत किया। इस रंगमंच में स्त्री की भूमिका निभा रहे पुरुष कलाकारों ने भारतीय स्त्रीत्व/नारीत्व के लिए नए मापदंडों की रचना की। पारसी रंगमंच ही वह पहला रंगमंच था जिसने स्त्रियों के लिए अभिनय की जमीन तैयार की। यह तब की बात है जब स्त्रियों ने स्वयं को रंगमंच की दुनिया से बाहर रखा हुआ था, या शायद रखी गई थीं।

कैथरिन हैन्सन पारसी रंगमंच के संबंध में अपने अध्ययनों में इस तथ्य को रेखांकित करती हैं कि स्त्री पात्र की भूमिका अदा कर रहे पुरुषों ने स्त्रियों के लिए उस स्थान (space) को बनाया जहाँ से वे स्वयं को इस दुनिया में शामिल कर सकें। यह एक प्रकार से राष्ट्रवादी धाराओं द्वारा राष्ट्रवाद के विमर्श के 'भारतीय स्त्री' के रुप में प्रस्तुत की जा रही 'आर्य समाजी महिला' की छवि से बहुत हद तक अलग छवि थी। पश्चिमी भारत के रंगमंच के विकास का इतिहास इस दृष्टि से ज्यादा पारदर्शी है, जहाँ पूरे उपनिवेश-काल के दौरान स्त्री पात्र की भूमिकाओं का निर्वाह अन्य लोगों द्वारा किया जाता रहा। इसका उल्लेख हमें लिखित अभिलेखों जैसे पत्रिकाओं, संस्करणों तथा जीवनवृत्तों से प्राप्त होता है। पारसी रंगमंच के माध्यम से ही तत्कालीन समाज में स्त्री की भूमिका निभा रहे पुरुष कलाकारों ने औरतों को फैशन के नए-नए तौर तरीके सिखाए एवं नारीत्व को भी संशोधित रुप में परिभाषित किया। जैसे मास्टर निसार, मास्टर फूलचंद, मास्टर नैनूराम, मास्टर नर्मदा, शंकर मास्टर, चंपालाल, मास्टर भोले शंकर, मास्टर फिदा हुसैन, खेमराज मारवाड़ी, अमीरीदीन इत्यादि कई नाम है, जिन्होंने पारसी रंगमंच में स्त्रियों के किरदार को निभाया, विशेषकर गुजराती पारसी रंगमंच में इन पुरुष किरदार में से कइयों के पास अच्छे घराने की स्त्रियाँ साड़ी पहनना सीखती थीं। गुजरात के जयशंकर सुंदरी और मराठी कलाकार बाल गंधर्व का नाम इस दृष्टि से काफी मशहूर था। गणपत डांगी यह बताते हैं कि :

''जब हम नकली स्त्री बनते थे तो दिल में बड़ा घमंड होता था। वैसी ही चाल, बातचीत, नाज नखरे, अदा और खास करके जब कभी मेरी पत्नी चरखारी में नाटक देखने आती और मैं स्त्री का रोल अदा करता उस समय हमारे दिल में एक अजब घमंड होता और पत्नी की आँखों में अजीब सी झेंप। एक दफा मेरे राधा बनने पर बाँसवाड़ी की बाईसा ने मेरे लिए सोने की पाजेब और पोशाक भेजी थी।"4

कैथरिन के अनुसार, पुरुष तथा बाहर से आई ऐंग्लो इंडियन अभिनेत्रियों ने एक तरह से रंगमंच की दुनिया में तब तक स्त्री-पात्रों की भूमिका अदा की, जब तक भारतीय स्त्रियों ने रंगमंच की दुनिया में प्रवेश नहीं किया। मध्यवर्गीय जनता के नाटक देखने जाने की शुरुआत के बाद और उसमें लगातार बढ़ रही महिला दर्शकों की संख्या के मद्देनजर स्त्री पात्रों की वेशभूषा तथा अन्य रंगमंचीय पहलुओं को दर्शकों की दृष्टि से देखा जाने लगा। स्त्री दर्शकों की लगातार बढ़ती संख्या को थिएटर हाउस में अलग से बैठने के लिए बड़े स्थान की आवश्यकता थी, जहाँ से वे नाटक का आनंद उठा सकें। स्त्री एवं पुरुष दोनों के लिए स्त्री पात्रों का अभिनय पुरुषों द्वारा किया जाना जेंडर आधारित भूमिकाओं की दृष्टि से स्पष्ट रुप से बहस का मुद्दा था।

रंगमंच की दुनिया में महिलाओं के प्रस्तुतीकरण का सार्वजनिक जीवन (Public Space) में महिलाओं के प्रवेश के साथ गहरा संबंध है। यही वह समय था जब समाज सुधार आंदोलनों के मुद्दों, कानूनी प्रावधानों तथा साहित्यिक रचनाओं में भारतीय स्त्री को नई भूमिका प्रदान की जा रही थी। सार्वजनिक जीवन में सहभागी होने के लिए स्त्री को पुरुषों के समान ही सामाजिक स्वीकार्यता की आवश्यकता थी। परंतु 1853 से 1931 के मध्य एक जीवंत रंगमंच की संस्कृति का वातावरण होने के बावजूद पारसी, मराठी एवं गुजराती थिएटर कंपनियों में महिलाओं के अभिनय को लेकर लगभग एक जैसी भावना बनी रही। वे व्यावसायिक नाटक कंपनियाँ थीं। कंपनी के मालिक शहर की बहुसंख्यक जनता की पसंद के नाटकों का मंचन करवाया करते एवं हरसंभव उनकी सहमति-असहमति का ध्यान रखते। संगीत, नृत्य तथा नाटकों को देखने के लिए आमतौर पर सभी वर्ग, जाति के लोग आया करते। पहले बंबई में रूढ़िवादी, परंपराप्रिय धनाढ्य व्यवसायी वर्ग तक ही नाटक सीमित थे। परंतु समाज में बढ़ते बुर्जुआ तबके ने सार्वजनिक स्थानों एवं जनता के खाली वक्त को भी अपने मुनाफे के लिए थिएटर के माध्यम से भुनाना शुरू कर दिया। बंबई शहर का पारसी समुदाय लगभग पूरी तरह यूरोपियन तर्ज पर बड़ी बड़ी थिएटर कंपनियाँ खोल रहा था और जनता का मनोरंजन कर रहा था, परंतु अभिनय को लेकर अभी भी पुरानी परंपरा ही कायम थी।

दक्षिण एशियाई नाटकों में स्त्री की भूमिका पुरुषों द्वारा किया जाना एक प्रकार से नाटक की अनिवार्यता थी। आम जनता के बीच स्त्रियों द्वारा अभिनय शर्मनाक माना जाता था। घर तथा बाहर के लैंगिक विभाजन ने स्त्रियाँ को घर की चारदिवारी में बांध कर रखा था। उस जमाने में गाने और नाचने के काम को कलंकित करने वाला काम माना जाता था, जिसे करनेवाली महिलाएँ अधिसंख्यक वेश्याएँ (तवायफें) या गरीब तबके की हुआ करती थीं। वे यह कार्य अपनी आजीविका के लिए किया करती और अपने एक या अधिक पुरुष संरक्षकों के लिए नियमित रुप से गाया बजाया करती। तब सवाल यह पैदा होता है कि क्यों इन पेशेवर महिलाओं को भी 19वीं सदी में मंच पर अभिनय करने की अनुमति प्रदान नहीं की गई? आमतौर पर इसका उत्तर यह दिया जाता है कि वे स्वयं को अपार प्रसिद्धि से दूर रखना चाहती थीं अथवा वे अभिनय में दक्ष नहीं थीं। हालाँकि स्त्री के हमशक्ल के रुप में पुरुषों द्वारा अभिनय किए जाने की कुछ हद तक यह सही व्याख्या हो सकती है परंतु ऐतिहासिक साक्ष्य इन तर्कों को गलत साबित करते हैं। रंगमंच की दुनिया में अभिनय करने वाली स्त्रियाँ थीं ही नहीं, इसको अस्वीकार करते हुए दस्तावेज यह बताते हैं कि पारसी रंगमंच में स्त्री तथा पुरुष दोनों कलाकारों को मासिक तनख्वाह पर रखा जाता था, जिसकी अवधि सीमित हुआ करती थी। अर्थात वे आपस में प्रतिद्वंदिता करते रहें और कंपनी तथा जनता यह चुनाव करे कि वह मंच पर किसे देखना चाहती है स्त्री को या पुरुष को।

पारसी थिएटर में लड़कों की नियुक्ति की जाती और उनको प्रशिक्षण भी दिया जाता था। किसी भी अभिनेता का अभिनय उसकी प्रारंभिक भूमिका के द्वारा तय होता था। सबसे पहले उन्हें नायिका की सखी-सहेली या अंतरंग मित्र की भूमिका दी जाती थी। उनमें से कुछ अभिनेता सभी भूमिकाएँ जैसे नायक, नायिका, विदूषक आदि निभाया करते थे। खुर्शीद बालीवाला (1852-1903) जिन्होंने बाद में विक्टोरिया थिएटर कंपनी की बागडोर सँभाली और पारसी थिएटर की एक सुप्रसिद्ध हस्ती बने। उन्होंने 18 वर्ष की आयु में 'रुस्तम और सोहराब' में स्त्री की भूमिका अदा की थी। उसके एक वर्ष के उपरांत ही उन्होंने पुरुष भूमिकाएँ करनी शुरू की।

संभवतः पुरुषों द्वारा स्त्रियों की भूमिका अदा करने का यह सिलसिला 20वीं सदी के प्रारंभ तक चला। जब तक जनता ने उन्हें पसंद किया और जब तक कंपनी मालिकों की दया उन पर बनी रही, उन्होंने बाकायदा यह काम किया। उन पुरुष अभिनेताओं की एक लंबी सूची है जिन्होंने पारसी रंगमंच में स्त्री भूमिकाओं को निभाया। परंतु दुर्भाग्यवश उन अभिनेताओं को भुला दिया गया। उनके जीवन, पसंद और उनकी आदतों के संबंध में लिखित साक्ष्य अत्यंत कम मात्रा में मौजूद हैं। दस्तावेजों में सिर्फ दो गैर पारसी अभिनेताओं का ही जिक्र मिलता है। जयशंकर सुंदरी (1888-1962) तथा बाल गंधर्व (1889-1975) दोनों ने ही अपने समय में अत्यंत अदा और खूबसूरती के साथ स्त्री भूमिकाएँ निभाईं। 5

पारसी थिएटर की दुनिया में अभिनेत्रियों के प्रवेश पर चली बहस पर नजर डालें तो पता चलता है कि पारसी रंगमंच में स्त्री दर्शकों की लगातार बढ़ती संख्या ने थिएटर मालिकों के लिए बड़ी संघर्षपूर्ण स्थिति पैदा कर दी। कंपनी मालिक यह चाहते थे कि उनके यहाँ नाटक देखने ज्यादा से ज्यादा संख्या में महिलाएँ आएँ ताकि उनकी कंपनी की प्रतिष्ठा बढ़ती रहे। उस दौर में मध्यवर्गीय स्त्रियाँ अपने नाते रिश्तेदारों के साथ नाटक देखने आया करती थीं किंतु शर्त यही होती कि नाटक में वेश्याओं से अभिनय न कराए जाएँ और थिएटर हॉल में स्त्रियों के बैठने की समुचित व्यवस्था हो। इस संदर्भ में दस्तावेज बताते है कि पारसी रंगमंच में पहली हलचल तब हुई जब मेरी फेंटन नामक एक एंग्लो इंडियन अभिनेत्री को लाया गया। इसे लेकर थिएटर मालिकों के बीच काफी बवाल मचा जिसकी एक झलक हमें के.एन. काबरा (1842-1904) के दृष्टिकोण से मिलती हैं। वे उस दौर के महत्वपूर्ण पारसी समाज सुधारक थे। वे नाटक को नैतिक उत्थान का माध्यम मानते थे। वे एक अच्छे नाटककार भी थे और उन्होंने गुजराती में करीब 15 नाटक लिखे थे। 1868 में उन्होंने एक नाटक क्लब की स्थापना की जो आगे चलकर सुप्रसिद्ध 'विक्टोरिया थियेट्रीकल कंपनी' में परिवर्तित हो गई। उन्होंने 1976 में एक अन्य नाटक कंपनी की भी स्थापना की। यह कंपनी उस समय के अभिनेता एवं कंपनी मालिक दादी पटेल के उस निर्णय के विरोध में खोली गई थीं, जिसमें उन्होंने विक्टोरिया कंपनी के नाटकों में महिलाओं को अभिनय करने की अनुमति दी थी। काबरा ने थिएटर के बिगड़ते हुए माहौल की कटु आलोचना की जो वेश्याओं के प्रवेश की वजह से पैदा हुई थी। उनका मानना था कि रंगमंच की पवित्र दुनिया वेश्याओं के अभिनय से दूषित हो जाएगी।

दूसरी पीढ़ी के कंपनी मालिकों ने भी न्यू अन्फ्रेड थिएट्रीकल कंपनी की पिछली परंपरा का अनुसरण करते हुए स्त्रियों को अभिनय करने की अनुमति नहीं दी। एक तरह से यह स्वघोषित बात थी कि महिलओं को अभिनय की अनुमति न प्रदान की जाए। इन कंपनियों ने हमेशा महिला दर्शकों को अभिनेत्रियों से दूर रखा। महिला अभिनेत्रियों के साथ अफवाहों एवं सुरक्षा का खतरा हमेशा बना रहता था। इसलिए कोई कंपनी यह खतरा नहीं मोल लेना चाहती थी। पारसी रंगमंच पर किसी महिला पात्र के अभिनय का संदर्भ हमें उसके अपहरण से प्राप्त होता है। 1872 में पारसी नाटक मंडली ने लतीफा बेगम के साथ 'इंदर सभा' नामक नाटक का मंचन किया। इस नाटक में उस मशहूर नृत्यांगना ने परी की भूमिका अदा की थी। नाटक के खत्म होने के समय जैसे ही उसने मंच से बाहर प्रवेश किया, एक पारसी पुरुष द्वारा उसका अपहरण कर लिया गया। उसने अपना ओवरकोट उस महिला पर डाला और कंधों पर उठा नौ दो ग्यारह हो गया। लतीफा के इस तरह से गायब होने ने थिएटर जगत में सनसनी फैला दी। कई दिनों तक अखबारों में इस घटना की चर्चा होती रही।

जब 1891 में अल्फ्रेड कंपनी का बँटवारा हुआ तब नई कंपनी ने सोहराब ओगरा (1858-1933) नामक एक व्यक्ति को प्रबंधक के तौर पर नियुक्त किया। काबरा की तरह ओगरा भी गरीब परिवार से संबंध रखते थे और उन्होंने भी औपचारिक शिक्षा नहीं पाई थी। उन्हें भी इसीलिए याद किया जाता है कि उन्होंने स्त्री द्वारा अभिनय किए जाने का विरोध किया। यहाँ तक कि उन्होंने कभी भी अपनी पत्नी या बच्चों को नाटक देखने आने की अनुमति नहीं दी। 1933 में उनकी मृत्यु होने तक कंपनी में अभिनेत्रियों का प्रवेश प्रतिबंधित रहा। इसलिए इसमें कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है कि न्यू अल्फ्रेड कंपनी को पारसी थिएटर कंपनियों में सर्वाधिक रुढ़िवादी, परंपरा-पसंद एवं सम्मानजनक होने की प्रतिष्ठा प्राप्त थी। इसी कारण इसने अपने दौर के महान नेताओं जैसे मोतीलाल नेहरू और मदन मोहन मालवीय को भी प्रभावित किया।

इसी बीच विक्टोरिया कंपनी के मालिक दादी पटेल को नाटक खेलने के लिए हैदराबाद आमंत्रित किया गया। उन्होंने वहाँ अपने नाटकों से धूम मचा दी। वहाँ से लौटते समय वे कुछ गानेवालियों को अपने साथ ले आए। जिन्होंने 1875 में मंचित नाटक 'इंदर सभा' में परियों की भूमिका अदा की। हालाँकि यह नाटक उस समय का असफल नाटक माना जाता है। उसी तरह 1880 में बालीवाला विक्टोरिया कंपनी में महिलाओं को लेकर आए। उनकी कंपनी में मिस गौहर, मिस मलिका, मिस फातिमा, मिस खातून तथा अन्य लड़कियाँ काम करती थीं। बालीवाला और विक्टोरिया थियेट्रीकल ने अपने यहाँ अभिनेत्रियों को काम पर रखना जारी रखा तथा अपने साथ-साथ सिलोन, सिंगापुर, वर्मा जैसे शहरों में थिएटर टूर पर भी साथ लेकर गए। इन छिटपुट प्रयासों को सामाजिक मान्यता भले न मिली हो परंतु इससे माहौल जरूर बनने लग गया था। 1896-98 में एक अन्य अभिनेत्री गौहर का जिक्र मिलता है जिसने अनेक नाटकों में उल्लेखनीय भूमिकाएँ अदा की जैसे - बज्में फानी में सोसन, मारे आस्तीन में बिजली, चंद्रावली में चंद्रावली तथा शहीदेनाज में सईदा इत्यादि। उसने बाद में मूक फिल्मों में भी काम किया। 6

परंतु इतना सब कुछ होने के बावजूद पारसी स्त्रियों के लिए अभिनय आसान नहीं था। इसी सिलसिले में 1904 में सर जमशेद जी की अध्यक्षता में एक बैठक भी हुई पर तमाम बहस मुबाहिसों के बाद भी पारसी लड़कियों को मंच पर लाने की बात स्वीकृत नहीं हो पाई। इस संबंध में एक मात्र अपवाद एक पारसी स्त्री का मिलता है जो एक पुरुष कलाकार के जोर देने पर मंच पर आई। पारसी स्त्री के इस कृत्य ने पारसी समुदाय के भीतर काफी हलचल मचा दी और उस अभिनेत्री पर कंपनी छोड़ने का दबाव बनाया जाने लगा। एलिजाबेथन थिएटर में भी यही स्थिति थी। वहाँ अंग्रेज महिला दर्शकों का स्वागत तो किया जाता था पर अंग्रेज अभिनेत्री स्वीकार्य नहीं थीं । इस प्रकार हम देखते हैं कि महिलाओं के लिए थिएटर कंपनियों के द्वार किस तरह खुले। मेरी फेंटन एक एंग्लो इंडियन महिला थी जबकि लतीफा बेगम, मोती जान, मिस फातिमा इत्यादि नाम इंडो मुस्लिम संस्कृति को दर्शाते थे और तवायफों की परंपरा से आए थे। अभिनेत्रियों के रंगमंच की दुनिया में प्रवेश, उनके संघर्ष तथा उनसे जुड़ी किंवदंतियों का इतिहास काफी रोचक रहा है जिनके संबंध में लिखित सामग्री की उपलब्धता काफी कम है।

पारसी रंगमंच की ही तरह बंगाल में भी रंगमंच की दुनिया में स्त्रियों के प्रवेश को लेकर काफी मत मतांतर रहे। 1873 में कलकता की 'बंगाल थिएटर' नाम की थिएटर कंपनी शरतचंद्र घोष तथा बिहारीलाल चटोपाध्याय के नेतृत्व में शुरू हुई। अपनी पुस्तक 'द स्टोरी ऑफ कलकत्ता थिएटर' (1753-1980) में वे बताते हैं कि दरअसल यह थिएटर लाइशियम थिएटर की नकल के रूप में स्थापित हुआ था। घोष तथा चट्टोपाध्याय ने उस समय के कई महत्वपूर्ण बुद्धिजीवियों, सरकारी मुलाजिमों, संस्कृति के विद्वानों तथा समाज सुधारकों के मध्य इस विचार पर आम सहमति बनाने का प्रयास किया कि बंगाली रंगमंच पर स्त्रियों को भी अभिनय करने की स्वतंत्रता प्रदान की जाए। उस समय बंगाल में समाज सुधार आंदोलनों में मधुसूदन दत्त तथा ईश्वरचंद विद्यासागर के विचार इस विषय पर बिल्कुल भिन्न थे। जहाँ, माइकल मधुसूदन दत्त ने रंगमंच पर स्त्रियों की उपस्थिति का तहेदिल से स्वागत किया वहीं ईश्वरचंद विद्यासागर ने उस समिति के इस फैसले के प्रति विरोध दर्ज करते हुए त्यागपत्र दे दिया, जिसने वेश्याओं द्वारा रंगमंच पर अभिनय करने को अनुमति प्रदान की थी। विष्णुप्रिया दत्त अपने शोध में बताती हैं कि इस फैसले के बाद बंगाली थिएटर में कलकत्ते के रेडलाइट इलाकों से चार वेश्याओं जगतारिणी, गोपाल सुंदरी, एलोकेसी तथा श्यामा को लाया गया।

इस फैसले ने बंगाल के सुशिक्षित समाज में अशांति फैला दी। यही वह दौर था जब बंगाल में अंग्रेजी पढ़े-लिखे तथा अपने आचार-व्यवहार में अंग्रेजियत पसंद तबका 'भद्रलोक' के रूप में उभर चुका था। इस भद्रलोक को वेश्या अभिनेत्रियों के विवाद ने बहुत प्रभावित किया। सार्वजनिक स्थानों में होने वाली बहसों में इस विषय पर काफी चर्चा हुई जिसकी झलक हमें तत्कालीन अखबारों तथा प्रेस विज्ञप्तियों में मिलती हैं। 18 अगस्त, 1873 में 'द हिंदू पेट्रीऑट ' ने लिखा :

"बंगाली थिएटर ने अपने पहले प्रदर्शन के लिए माईकल मधुसूदन दत्त की 'सर्मिष्ठा' नाटक को चुना जो अत्यंत सफल रहा। अभिनेताओं ने अपनी भूमिका बखूबी अदा की तथा उन दो पेशेवर अभिनेत्रियों ने बहुत सफल तरीके से अपने चरित्रों को निभाया। परंतु हम यह चाहेंगे कि यह थिएटर बिना अभिनेत्रियों के ही चले। यह सच है कि बंगाल में पेशेवर महिलाओं ने जात्रा तथा नाच जैसी लोक कलाओं में कदम रखा है, परंतु हमने यह आशा की थी कि बंगाली थिएटर के प्रबंधक जात्रा वालों की तरह अपनी गरिमा और साख को नीचे नहीं गिरने देंगे"।7

जनवरी 1874 में अमृत बाजार पत्रिका ने लिखा :

"बंगाल थिएटर संभ्रांत बंगाली समाज के लिए नई चीज है। यह अत्यंत सुखद और खूबसूरत प्रयास है कि महिलाएँ स्त्री पात्रों की भूमिका अदा करें। परंतु इसके कारण समाज में अनैतिकता को बढ़ावा मिलेगा और समाज को गलत संदेश मिलेंगें। यदि ये महिलाएँ जो एक तरह से समाज द्वारा बहिष्कृत तथा अनैतिक (वेश्याएँ) हैं, स्त्री भूमिकाओं का निर्वाह करेंगी तो यह अच्छी बात नहीं होगी। बंगाली थिएटर ने इस कठिन कार्य का भार अपने ऊपर लिया है। अच्छी-खासी जनता है जो उनके रंगमंच के प्रति आकर्षित है तथा अनेक प्रदर्शनों की साक्षी है।" 8

सुशील मुखर्जी बताते हैं कि एक ब्रिटिश अखबार 'द इंगलिशमैन' ने भी पेशेवर महिलाओं द्वारा अभिनय किए जाने की आलोचना की थी। मनमोहन बसु ने, जो उस दौर के नाटककार थे, एक बंगाली पत्रिका 'मध्यस्था' में अत्यंत व्यंग्यात्मक लहजे में इस विषय पर अपने विचार रखते हुए लिखा :

"अंततः लंबे समय बाद लड़के तथा पुरुष चैन की साँस ले सकेंगे और उनके घरवाले, उनकी पत्नियाँ आराम से रह सकेंगे। लंबे समय के बाद वेश्याओं को इस सुशिक्षित समाज में समानता का दर्जा प्राप्त हो सका है। अब वे पुरुषों के साथ-साथ अभिनय कर सकेंगी। अब सही मायने में बंगाली दर्शक वर्ग को संतुष्टि हासिल होगी क्योंकि अब इस समाज की नैतिकता को नवअवतरित समूह परिभाषित करेगा।" 9

परंतु स्त्री-अभिनेत्रियों के पक्ष में बोलनेवाले भी कई महत्वपूर्ण लोग थे जिन्होंने रंगमंच पर स्त्रियों की आवश्यकता एवं उनकी उपयोगिता को अपने तर्कों द्वारा स्पष्ट करने का प्रयास किया। किरणचंद्र दत्त, जो उस दौर के प्रमुख निर्देशक-नाटककार थे और बंगाल थिएटर के साथ काम कर रहे थे उन्होंने यूरोपियन थिएटर को आधार बनाते हुए यह तर्क दिया कि यूरोप में कई लोग गृहिणी महिलाओं को अभिनय को एक पेशे के रूप में अपनाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। अतः हमें भी महिलाओं को अभिनय की स्वतंत्रता देनी चाहिए। उनकी बात को आगे बढाते हुए गिरीश घोष ने उन तथ्यों को भी उजागर किया जो बंगाली भद्रलोक में अंतर्निहित विरोधाभासों को दर्शा रहे थे। अभिनेत्रियों के रंगमंच पर आने का विरोध करने वाले वही बाबू लोग थे जिन्होंने अपने शौक के लिए कई वेश्याओं को अपनी रखैल बनाकर रखा हुआ था। वे निजी तौर पर उनके गाने और नृत्य के प्रशंसक थे परंतु उन्ही स्त्रियों के सार्वजनिक प्रदर्शन का वे खुले तौर पर विरोध कर रहे थे। परंतु गिरीश घोष ने अपने तथ्यों को प्रस्तुत करते हुए इस बात पर गौर नहीं किया कि दरअसल थिएटर का अभिप्राय सिर्फ बाबुओं के लिए प्रदर्शन नहीं था बल्कि वे इस दुनिया के कर्ताधर्ता भी थे और अभिनय भी कर रहे थे। वेश्याओं को रंगमंच पर प्रवेश की अनुमति देने का अर्थ था कि अब प्रतिष्ठित पुरुष समाज की असम्मानीय महिलाओं के साथ सह भूमिका करने जा रहे थे। रंगमंच को लंबे समय से एक नैतिक संस्थान और सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन लाने वाले मजबूत माध्यम के रूप में देखा जा रहा था। परंतु वेश्याओं के प्रवेश ने इस स्थापित परिभाषा को बदल डाला। इस संबंध में दर्शन चौधरी ने अपने एक आलेख में ईश्वरचंद्र विद्यासागर को इस बात के लिए बधाई दी कि उन्होंने वेश्याओं को अभिनेत्री बनाए जाने पर आपत्ति जाहिर की थी। उनका मानना था कि रंगमंच एक सामाजिक बुलेटिन की तरह है जिसका कार्य समाज में हो रहे बदलावों की घोषणा करना, उस पर तर्क करना और उसे प्रोत्साहित करना है न कि स्वयं इस परिवर्तन में सक्रिय भूमिका अदा करने लगना। परंतु बंगाली रंगमंच के संस्थापक गिरीश घोष ने अभिनेत्रियों के पक्ष में अन्य तर्क भी प्रस्तुत किए जिसमें उन्होंने लड़कों द्वारा स्त्रियों की भूमिका अदा किए जाने पर चिंता जाहिर करते हुए लिखा :

"जब लड़कों को लड़कियों की भूमिका करने के लिए नियुक्त किया जाता है तो न सिर्फ प्रदर्शन अकुशल होता है - बल्कि इसके कारण लड़कों में वह विकृति पैदा होती है जिसे ठीक होने में कठिनाई पैदा होती है। अपने युवाकाल के प्रारंभ में ही स्त्रियों की भूमिका अदा करने के कारण वे जीवन भर कुछ खास भंगिमाओं को साथ लेकर चलते हैं।" 10

अमृत लाल ने इस तर्क को आगे बढ़ाते हुए दो बातों पर जोर दिया कि वे लड़के, जो स्त्रियों की भूमिका निभाते हैं, जल्दी बड़े हो जाते हैं जिसके कारण वे उस भूमिका के योग्य नहीं बचते अथवा वे स्वयं उस भूमिका को निभाने से इंकार कर देते हैं तथा अच्छे नाटकों के अभाव में थिएटर को बचाए रखने के लिए अभिनेत्रियों की आवश्यकता है। इस तर्क ने अभिनेत्रियों के जरिए कंपनी को होने वाले व्यावसायिक फायदे के समक्ष नैतिकता के मुद्दे को गौण कर दिया। परंतु वेश्या अभिनेत्रियों के अभिनय को लेकर पैदा हुआ विवाद 1873 के बाद भी चलता रहा। 1877 में 'आर्यदर्शन' नामक पत्रिका में जोगेंद्रनाथ विद्याभूषण ने स्त्रियों द्वारा अभिनय का स्वागत करते हुए अपने तर्क प्रस्तुत किए। उनका मानना था कि यह पहली बार नहीं है बल्कि विभिन्न लोक परंपराओं जैसे 'जात्रा' तथा 'कीर्तन' इत्यादि में महिलाओं द्वारा अभिनय किया जाना आम बात है। 1795 में नवीन चंद्र बासु द्वारा श्याम बाजार थिएटर में भी महिलाओं को नियुक्त किया गया था।

इरगो ने एक लेखक के रुप में इस बात की वकालत की कि यह उचित होगा कि हम मनोरंजन के व्यवसाय को उन सुरक्षित हाथों में सौंप दें जो सदियों से मनोरंजन करते आए हैं। व्रिजभूषण ने अपने तर्क को उन समस्त समाज सुधार आंदोलनों के साथ जोड़ने का प्रयास किया जो स्त्री मुक्ति के संदर्भ में 19 वीं सदी में बंगाल में चलाए जा रहे थे। वेश्याओं को रंगमंच में प्रवेश की अनुमति देकर बंगाली थिएटर वास्तव में एक महान सामाजिक कार्य कर रहा था। इसने समाज में सबसे अधिक निकृष्ट समझी जाने वाली महिलाओं को उनके कष्टप्रद जीवन से मुक्ति दिलाकर एक सुनहरा रास्ता खोला। व्रिजभूषण ने अपने पाठकों से इन महिलाओं के प्रति संवेदनशील होने की पुरजोर अपील की। साथ ही, वे वेश्यावृति के सांस्थानिक रुप के लिए समाज को उत्तरदायी मानते हुए क्षमाप्रार्थी भी थे। उस समय के स्वास्थ्य अधिकारी डॉ.एफ.सी. फैब्रे होनेरे ने एक आकड़े के जरिए बताया कि कलकता शहर में उस समय वेश्याओं की संख्या लगभग 30,000 थी।

इन समस्त बिंदुओं से यह स्पष्ट होता है कि उस दौर में थिएटर कंपनी में कार्यरत बंगाली समुदाय का महिला अभिनेत्रियों को लेकर रुख बहुत हद तक उदारवादी/ प्रगतिशील था। जबकि उसी समय राष्ट्रवादी चिंतन में मग्न कई लोगों के विचार अत्यंत रूढ़िवादी थे। 19वीं सदी के बंगाल का बुद्धिजीवी वर्ग दरअसल कई विचारों में बँटे होने के कारण 'स्त्री सुधार' के प्रश्न पर भी विभाजित था। राष्ट्रवाद के जिस खाँचे में बंगाल की आर्य समाजी नई स्त्री गढ़ी जा रही थी, उसमें उसका क्षेत्र 'घर' था जिसकी पवित्रता और संस्कृति की उसे रक्षा करनी थी, वहीं हाशिए की वे महिलाएँ भी थीं जिनके सुधार का रास्ता बंगाल का प्रगतिशील तबका कला के माध्यम से देख रहा था। तीसरी तरफ, थिएटर कंपनियों के कर्ताधर्ताओं का एक समूह था जो वेश्याओं को अभिनेत्री के रूप में शामिल करने के लिए इच्छुक था जिनके कारण थिएटर कंपनियों को आर्थिक तौर पर बहुत फायदा हो रहा था। दर्शकगण बड़ी संख्या में इन अभिनेत्रियों को देखने आया करते थे। परंतु अभी भी रंगमंच पर जो स्त्री अभिनय कर रही थी वह किसी संभ्रांत घर की स्त्री नहीं बल्कि समाज के निचले तबके से थी। इस दुनिया में आने के लिए मध्यवर्गीय स्त्रियों द्वारा किए गए संघर्षों का अध्ययन अभी शेष है।

हिंदी प्रदेशों की स्थिति और अधिक भयावह थी। यहाँ रंगमंच में स्त्रियों का अभाव हमेशा बना रहा। प्रत्येक नाटक मंडली यह अपेक्षा करती थी कि अन्य समाजों की स्त्रियाँ उनके साथ काम करें, परंतु इसकी शुरुआत उन्होंने अपने घरों से कभी नहीं की। हिंदी प्रदेशों के जनमानस में यह भावना गहरी पैठ बनाए हुई थी कि रंगमंच में भले घरों की स्त्रियों का अभिनय करना न सिर्फ अशोभनीय है बल्कि इससे उनमें नैतिक मूल्यों में ह्रास तथा घर के कार्यों के प्रति अवहेलना के भाव भी उत्पन्न होंगे। हालाँकि इस समय तक कुलीन परिवारों के लड़कों का भी अभिनय करना शर्मिंदगी का कारण माना जाता था। लड़कियों द्वारा अभिनय तो बहुत दूर की बात थी। 1931 में कुमारी सत्यवती ने 'माधुरी' नामक पत्रिका में यह प्रश्न अपने लेख के माध्यम से उठाया कि हिंदी रंगमंच पर स्त्रियाँ क्यों नहीं? उन्होंने न सिर्फ यह प्रश्न उठाया बल्कि तत्कालीन समाज में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति एवं भूमिका का भी आकलन किया। सत्यवती ने स्त्रियों के संपूर्ण विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियों की माँग की। आज की शब्दावली में कहें तो यह लेख हिंदी रंगमंच का पहला स्त्री विमर्श है जिसके जरिए लेखिका ने रंगमंच में स्त्रियों के प्रवेश की तार्किक आवश्यकता जाहिर की। नाटकों में स्त्री भूमिका को पुरुषों द्वारा निभाए जाने को लेकर कई आपत्तियाँ उठाते हुए उन्होंने लिखा :

''जिस प्रकार जीवन स्त्रीत्व एवं पुरुषत्व इन दो भागों में विभक्त है तथा जीवन के हर कार्य में स्त्री तथा पुरुष दोनों को भाग लेना पड़ता है। उसी प्रकार कला के अंग नाटक में भी जहाँ जीवन के सुख और दुख दोनों दिखाए जाते हैं, स्त्री एवं पुरुष दोनों को भाग लेना चाहिए। दाढ़ी मूँछ मुड़ाए हुए स्त्री-भेष में पुरुषों का रंगभूमि में आना हास्यास्पद तथा कला की दृष्टि से अपमानजनक है। पुरुष के लिए यह बात सर्वथा अस्वाभाविक होने के कारण यह एकदम असंभव भी है कि वह सफलतापूर्वक स्त्री की भूमिका अदा कर सके एवं वास्तविक भावों को लोगों के हृदय में उतार सके। क्या यह संभव है कि पुरुष के मन में वही भावनाएँ उसी प्रकार जोरों से आंदोलित हो सकती है। जिस प्रकार स्त्री के मन में होती हैं? पुरुष किसी बात को उसी तरह महसूस नहीं कर सकता जिस प्रकार स्त्री और जब हमारा हृदय ही किसी भावना के आवेग से प्रकंपित नहीं हो रहा है तब यह कैसे संभव होगा कि हम किसी दूसरे के मन पर प्रभाव डालने में समर्थ हों। यह कला नहीं, कला का उपहास है। जब भावनाएँ झूठी या बनावटी होगी तब उनकी अभिव्यक्ति भी वैसी ही होगी। इसलिए कला की दृष्टि से स्त्री का रंगमंच पर आना आवश्यक है। यहाँ आकर ही वे बता सकती हैं कि कला में कितना सौंदर्य है। पुरुष के लिए स्त्रियों के चरित्र का अभिनय करना कदापि हितकर नहीं हो सकता।" 11

सत्यवती का लेख स्त्रियों की अभिव्यक्ति थी। इस लेख ने उस समय के बौद्धिक जगत में हलचल पैदा कर दी। जिससे उत्तेजित होकर इसके प्रत्युत्तर में कई लेख लिखे गए। 'विशाल भारत' के सह संपादक ब्रजमोहन लाल वर्मा ने तो रंग परिवेश की स्थिति को बदलने की बजाए स्त्रियों के मंच पर आने के विचार को ही अतार्किक बताया। माधुरी के अंक 6 में कुमारी सत्यवती के विचारों को भावुकतापूर्ण एवं अतार्किक बताते हुए उन्होंने लिखा :

''रंगमंच पर स्त्रियों को स्थान दिलाने की अपेक्षा कहीं अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या रंगमंच पर भले घर की ललनाओं का उतरना वांछनीय है? कला की दृष्टि से मैं पहले ही स्वीकार कर चुका हूँ कि स्त्री की भूमिका स्त्री के द्वारा किया जाना निश्चय ही वांछनीय है। परंतु क्या सदाचार, नैतिकता और चरित्र गठन आदि की दृष्टि से हमारी लड़कियों का नाटक कला में अभिनय करना वांछनीय एवं उचित हैं? क्या रंगमंच पर ना थिरकने से ही हमारी देवियों की शक्तियाँ अविकसित होकर नष्ट हो रही हैं? क्या थिएटर में ही नाच कर स्त्रियों की शक्ति के अपव्यय को रोका जा सकता है? संसार की कितनी महान स्त्रियों ने नाटक में अभिनय करके अपना विकास किया है?'' 12

इस प्रकार की कई टिप्पणियाँ इस लेख में की गई, जिनमें तत्कालीन समाज की संकीर्णता की झलक मिलती है। इसने रंगमंच के सहज विकास एवं उसमें स्त्रियों के प्रवेश को बार-बार अवरुद्ध किया। यही वह दौर था जब महात्मा गांधी के आह्वान पर हजारों की संख्या में स्त्रियाँ देश की आजादी के लिए घरों से बाहर निकल रही थीं और पूरा देश एक बड़े परिवार में तब्दील हो चुका था। अध्ययन यह बताते है कि स्वाधीनता-आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी गांधीजी की बदौलत ही संभव हो पाई। 1920 के बाद वे एक जीते जागते महापुरुष में तब्दील हो चुके के थे। गांधी जी का यह मानना था कि कई काम सिर्फ महिलाएँ ही कर सकती हैं। मधु किश्वर यह मानती हैं कि गांधीजी ने सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों को एक नया आत्मसम्मान, नया विश्वास नई आत्मछवि दिलाई जिसके कारण स्त्रियों का सार्वजनिक जीवन में आना संभव हो सका। परंतु यह सिर्फ इसलिए संभव हो सका क्योंकि तब स्वतंत्रता आंदोलन को एक धार्मिक मिशन माना गया और गांधी को महात्मा। यह कोई राजनीतिक कृत्य नहीं है यह सोचते हुए घर के पुरुषों ने भी अपनी महिलाओं को इसमें भाग लेने की सहर्ष अनुमति दे दी। परंतु उसी दौर में एक और वर्ग भी सक्रिय था जो संस्कृति, सभ्यता एवं परंपरा के नाम पर स्त्रियों की स्वतंत्रता को बाधित कर रहा था। इस बहस को रंगमंच की दुनिया में भी तलाशा जा सकता है। जहाँ एक तरफ तरक्कीपसंद तबका था तो दूसरी तरफ परंपरावादी। स्त्रियों के रंगमंच में अभिनय को लेकर अपने विचार रखते हुए चाँद पत्रिका (1921) में प्रकाशित लेख ''गृह पत्नी या कला देवी'' में रामकृष्ण ने कहा कि :

"क्या हमारी गृहिणियाँ अभिनेत्री बनकर गृहस्थ, गौरव और दांपत्य के उत्तरदायित्व को उसी खुशी और तत्परता से वहन कर सकती हैं जो एक गैर अभिनेत्री के लिए संभव है? हमारा प्रश्न यहीं समाप्त नहीं होता, इसमें दांपत्य जीवन की पवित्रता और पारिवारिक जिम्मेवारियों से भी बड़ी सांस्कृतिक निर्मलता का प्रश्न है।'' 13

1936 के पश्चात राष्ट्रीय आंदोलन में भी वामपंथ की गूँज सुनाई देने लगी जिसके उपरांत जनवादी आंदोलनों का दौर शुरू होता है। भारत में आजादी से पहले और उसके बाद कई ऐसे जनवादी आंदोलन खडे़ हुए जिनसे जनवादी रंगकर्म, विशेषतः नुक्कड़ नाटक लेखन को बल मिला और इन नाटकों ने भी कई आंदोलनों में अपना यथासंभव सहयोग दिया। उनमें साहित्यिक-सांस्कृतिक आंदोलनों के प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा तथा राजनीतिक सामाजिक आंदोलनों में से मजूदरों, किसानों, महिलाओं और दलितों द्वारा चलाए गए आंदोलनों को जानना आवश्यक है। धीरे-धीरे ही सही अब प्रगतिशील विचारों वाले परिवारों में स्त्रियों के रंगमंच पर अभिनय करने को लेकर जड़ता की स्थिति नहीं रह गई। जिस समय भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फासीवादी शक्तियों का विरोध चरम पर था उस समय साम्राज्यवाद और फासीवाद से लड़ने के लिए जनता को तैयार करने के उद्देश्य से इप्टा (इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन या भारतीय जन नाट्य संघ) की स्थापना हुई। इप्टा ने रंगकर्म के माध्यम से जन-जागृति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उसने नाटकों को सिर्फ थिएटर हाउसों तक सीमित नहीं रखा बल्कि गली, मोहल्लों, कस्बों और गाँवों तक पहुँचाया। इसके लिए उसने लोक नाट्य रुपों जैसे जात्रा, तमाशा, स्वाँग, नौटंकी आदि का उपयोगी समकालीन यथार्थ को प्रस्तुत करते हुए जनता तक अपना संदेश पहुँचाने के लिए किया। इस तरह जननाट्य की प्रगतिशील परंपरा को पुनर्जीवित करते हुए नाट्य एक नई पहचान के साथ सामने आया।

1942 से इप्टा जैसी नाट्य संस्थाओं के सक्रिय होने के उपरांत नाटकों एवं गीतों के माध्यम से आम जनता के संघर्ष को बल मिला। जहाँ एक तरफ पारसी रंगमंच ने आर्थिक लाभ को केंद्र में रखा, जिसका उद्देश्य विशुद्ध रुप से जनता का मनोरंजन करना था वहीं इप्टा तथा उस दौर की अन्य जनवादी नाट्य संस्थाओं ने अपने नाटक का विषय जनता की समस्याओं, उनके प्रति हो रहे अन्याय तथा संघर्षों को बनाया। इन यथार्थ आधारित सोदेश्य जन नाटकों ने रंगमंच के क्षेत्र में भारी परिवर्तन किया। इस दिशा में पृथ्वी थिएटर की भूमिका भी अत्यंत सराहनीय है। 1944 में पृथ्वी थिएटर की स्थापना के बाद पृथ्वीराज कपूर ने थिएटर के माध्यम से जनवादी आंदोलनों को बहुत समर्थन दिया। इस थिएटर में इप्टा की कार्यकर्ता एवं रंगकर्मी रह चुकी कई महिलाओं ने व्यावसायिक तौर पर बतौर अभिनेत्री काम करना शुरू कर दिया। उन अभिनेत्रियों में एक महत्वूपर्ण अभिनेत्री जोहरा सहगल भी थीं, जिन्होंने अपनी आत्मकथा 'स्टेजिज' में पृथ्वी थिएटर के उन दिनों को याद करते हुए कई महत्वपूर्ण बातें लिखी हैं।

आजादी के उपरांत कई अभिनेत्रियों यथा - तृप्ति मित्रा, शोभा सेन, केतकी दत्ता, सुलभा देशपांडे, सुधा शिवपुरी, सुरेखा सिकरी, उत्तरा बावकर, रोहिणी हटंगड़ी, सुनीला प्रधान इत्यादि ने नाटकों में पुरुषवादी मानदंडों से परे जाकर महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाईं। अब इस क्षेत्र में सिर्फ अभिनेत्रियों ही नहीं रह गई थी बल्कि महिला निर्देशिकाओं का भी एक समूह उभर रहा था। जिसमें शांता गांधी, विजया मेहता, ज्वॉय मिशेल, उषा गांगुली, रेखा जैन, प्रतिभा अग्रवाल, बी. जयश्री, कीर्ति जैन, नीलम मानसिंह, अनुराधा कपूर, त्रिपुरारी शर्मा, अमाल अल्लाना इत्यादि नाम उल्लेखनीय हैं। इन्होंने न सिर्फ अभिनय प्रक्रिया को पुनर्व्याख्यायित किया बल्कि रंगमंच को कई ऐतिहासिक नाटक भी प्रदान किए।

बावजूद इसके, रंगमंच की दुनिया में स्त्रियों की स्थिति पहले से बेहतर हुई थी, यह कहना अतिशयोक्ति होगी। जो स्त्रियाँ मंच पर अभिनेत्री के रुप में उतर रही थीं वे अभी भी सामाजिक दृष्टि से हेय मानी जा रही थीं। नाटककार के रुप में महिलाएँ पुरुषों द्वारा हाशिए पर ढकेली जा रही थीं। निर्देशिका के रुप में भी उन्हें इस दुनिया में जगह बनाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी। अभी भी प्रबंधक के तौर पर महिलाओं की उपस्थिति नगण्य थी। परंतु इसका तात्पर्य यह भी नहीं था कि उन्होंने रंगमंच की दुनिया में कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं दिया। आजादी के उपरांत उभरी महिलाओं की इस पहली पीढ़ी ने हमेशा रंगमंच की दुनिया में सफलता का परचम लहराया। विजया मेहता मुंबई में और शैलजा भाटिया दिल्ली में मशहूर निर्देशिका के तौर पर उभरीं। रोशन अल्काजी उस जमाने में वेशभूषा विश्लेषक थीं। यहाँ तक कि नया थिएटर जैसी नाट्य कंपनियाँ, जिनके साथ आमतौर पर हबीब तनबीर का नाम जोड़ा जाता है, वह भी मोनिका मिश्रा तनवीर के अथक प्रयासों एवं उनके कुशल प्रबंधन-संयोजन के बिना खड़ा न हो पाता। उस नाट्य कंपनी में भी तीन और महिलाएँ रही है। कलाकार के रुप में फिदाबाई तथा गायिका के रुप में मालाबाई और नगीन तनवीर। इसके बावजूद संपूर्णता में उस दौर के रंगमंच के अवलोकन के अनुसार यह सत्य है कि महिलाएँ हाशिए पर थीं।

उसी तरह 1960 का दशक न सिर्फ भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर भी काफी उथल-पुथल भरा रहा। नव-सामाजिक आंदोलनों के फलस्वरूप उभरे कई आंदोलनों जैसे-दलित, अश्वेत तथा महिला समूहों ने अपनी अस्मिता तथा संघर्ष को अपने नजरिए से रखना शुरू किया। 1970 का दशक वैश्विक स्तर पर आंदोलनों का दशक रहा। इस दौरान बड़ी संख्या में सामूहिक प्रयास के रुप में नाटक खेले गए, जो स्त्री मुद्दों पर केंद्रित थे। 1970 में विभिन्न नारीवादी समूहों ने महिला मुद्दों के प्रति चेतना जागृति का कार्य शुरू किया और अपने संघर्षों को नुक्कड़ नाटकों के जरिए सड़क पर लेकर आईं। कुछ महत्वपूर्ण नारीवादी संगठनों जैसे जागोरी, स्त्री मुक्ति संगठन, गरीब, जोगरी संस्थान, थिएटर यूनियन तथा सहेली ने इस कार्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हालाँकि इस संबंध में अधिक लिखित दस्तावेज उपलब्ध नहीं है परंतु व्यक्तिगत प्रयासों के कारण जो थोड़े बहुत साक्ष्य उपलब्ध हैं, उनसे यह पता चलता है कि किस प्रकार इन स्वायत्त संगठनों ने औरतों की कहानी और रोजमर्रे की उनकी तकलीफों को सार्वजनिक मुद्दे के तौर पर पेश किया। 14

1970 के दशक में सामाजिक हिंसा और महिलाओं के प्रति हो रहा शोषण 'दहेज हत्याओं' के रूप में हमारे सामने आया। ये हत्याएँ वधू पक्ष द्वारा वर पक्ष की माँगों को पूरा न कर पाने के कारण होती थीं। भारत में इस प्रकार के 'पारिवारिक झगड़े' लगभग सभी जातियों, वर्गों, धर्मों तथा समुदायों में सामान्य बात थे। वास्तविकता यह थी कि दहेज की शर्त पत्नी उत्पीड़न का पर्याय बन गई थी। महिला आंदोलन के लिए उस दौर में यह क्रूरता प्रमुख मुद्दा थी। कम्युनिस्टों तथा वामपंथी पार्टियों ने भी क्षोभ के साथ यह बात स्वीकारी कि यह कुरीति उनके अपने सदस्यों के बीच भी जारी है। स्त्री उत्पीड़न का यह मुद्दा सारे देश के महिला आंदोलन का केंद्र-बिंदु बन गया। दहेज के विरुद्ध चलाए जाने वाले अभियान के अंतर्गत महिला कार्यकर्ताओं को पीड़ित महिलाओं से बार-बार होने वाली मुलाकातों और उनकी व्यथा-कथा सुनकर इस बात का पूरा यकीन हो गया था कि इस देश में स्त्रियों को अनेक संकटों का सामना करना पड़ रहा है। नारीवादी स्वंय भी उनकी कोई सहायता कर पाने में खुद को लाचार महसूस कर रहे थे। समकालीन नारीवादी आंदोलन में दहेज के विरुद्ध प्रारंभिक विरोध हैदराबाद में सन् 1975 में प्रगतिशील महिला संगठन द्वारा दर्ज कराया गया। अनेक बार संगठन द्वारा आयोजित प्रदर्शनों में महिलाओं की संख्या सौ तक पहुँच गई फिर भी उनका विरोध प्रदर्शन पूर्णरूपेण आंदोलन की शक्ल नहीं ले पाया। लगभग दो वर्षों की खामोशी के बाद दहेज के विरुद्ध आंदोलन दिल्ली में शुरू हुआ। यह आंदोलन इस बार महिलाओं के दहेज-उत्पीड़न पर केंद्रित था। खासतौर से दहेज हत्या के विरुद्व पंजाब, महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात, मध्य-प्रदेश, पश्चिम-बंगाल सहित भारत के अनेक भागों में विरोध अभियान चल रहे थे परंतु दहेज संबंधी अपराधों के विरुद्ध विस्तृत आंदोलन दिल्ली में ही चल रहा था। इसका कारण यह था कि दिल्ली में दहेज के कारण होने वाली हत्याओं की संख्या सबसे अधिक थी।

अब तक आग लगने से होनें वाली मौतों को आत्महत्या के रूप में लिया जाता था, और दहेज-उत्पीड़न को आत्महत्या का कारण बहुत कम माना जाता था। आमतौर पर पुलिस द्वारा भी ऐसे मामलों को 'पारिवारिक और निजी' कहकर नजरअंदाज कर दिया जाता था। इसे राज्य की चिंता का विषय नहीं माना जाता था। बहरहाल, दशकों से चली आ रही इस उदासीनता का नारीवादियों ने विरोध किया तथा आग लगने से होने वाली मौतों को यह कहते हुए कि उनकी औपचारिक 'आत्महत्याएँ' आत्महत्याएँ नहीं, बल्कि हत्याएँ है, उसे दहेज उत्पीड़न से जोड़ना शुरू किया गया। कुछ मामलों में दहेज हत्या की शिकार महिलाएँ बयान देने के लिए काफी देर तक जीवित रहीं और उन्होंने अपने मृत्यु-पूर्व बयान में सास-ससुर द्वारा दहेज के लिए तंग किए जाने का उल्लेख भी किया परंतु पुलिस ने इतनी सुस्त और देर से कारवाई की कि हत्यारे साक्ष्य मिटाने में कामयाब हो गए और हत्या के मामले को आत्महत्या कह कर सारा मामला रफा-दफा कर दिया गया। नारीवादियों ने इस स्थिति के विरुद्ध यह कहते हुए आवाज बुलंद की कि मृत्यु-पूर्व महिला द्वारा दिए गए बयान को साक्ष्य माना जाए और पुलिस के तौर तरीकों को चुस्त किया जाए तथा समाज हत्यारों का बहिष्कार करे। कुछ लोगों पर इसका असर भी हुआ। उन्होंने सहमति जताते हुए धरनों में भी भाग लिया। स्त्री संघर्ष द्वारा किया गया विरोध प्रदर्शन इतना तीव्र था कि अभियुक्तों के घर पहुँचते-पहुँचते जुलूस तीन गुना बड़ा हो जाता। इस जुलूस में हत्यारों के पड़ोसी, अपने बच्चों के साथ शामिल होते, सफाई कर्मचारी, घरेलू नौकर तथा आसपास से गुजरने वाले लोग भी इसमें शामिल हो जाते। इस सफलता को देखते हुए नारीवादियों ने दहेज के मुद्दें को उठाने के लिए लोगों से संवाद का सीधा तरीका खोजने की जरूरत महसूस की। नए तरीके तलाशने के लिए हुई चर्चा के दौरान 'नुक्कड़ नाटक' का सुझाव उभरा। जिसके पश्चात स्त्री संघर्ष ने दहेज हत्या पर आधारित पहला नुक्कड़ नाटक 'ओम स्वाहा' खेला गया। नाटक की कहानी दो महिलाओं की दहेज हत्या पर आधारित थी। इसकी लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि सभी क्षेत्रों से समिति के पास नाटक के प्रदर्शन के अनुरोध आने लगे। लोगों ने नारी रक्षा समिति को पत्र लिखकर उनके क्षेत्रों में आने तथा नुक्कड़ नाटक करने का अनुरोध किया। नाटक करने वाली अधिकतर महिलाएँ मध्यवर्गीय थी। उनकी ओर से पहली बार यह सक्रिय प्रयास किया गया। इसी क्रम में कई महिला संगठनों का भी गठन हुआ जैसे बंबई में फोरम अगेंस्ट ऑप्रेशन ऑफ वुमेन, विमोचना, स्त्री शक्ति संगठन, सहेली, जागोरी आदि। इन सभी संगठनों ने राज्य को इस बात के लिए सीधे तौर पर उत्तरदायी ठहराया कि वह महिलाओं के प्रति हो रही हिंसा के प्रति जरा भी सजग नहीं है और सरकार से इस तरफ विशेष ध्यान देने की अपील की। 15

1979 में दिल्ली में नारीवादियों के एक समूह ने पहली नारीवादी पत्रिका 'मानुषी' की शुरुआत की जिसने बुलंद आवाज में दहेज जैसी कुप्रथा की विरोध करते हुए महिला आंदोलन को एक महत्वपूर्ण मंच उपलब्ध कराया। 1978 में दिल्ली में सुभद्रा बुटालिया ने दहेज को अपने प्रतिरोध का मुख्य विषय बनाया। अन्य सभी गतिविधियों के अतिरिक्त इन संगठनों ने नारे लिखे, दहेज पीड़ितों के घर के सामने धरना प्रदर्शन किया तथा पुलिस के दस्तावेजों की छानबीन शुरू की। नारीवादी कार्यकर्ताओं ने नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से इन सामजिक कुप्रथाओं को सबके सामने उठाने का तरीका अपनाया। यह नाटक सिर्फ निर्देशात्मक ही नहीं थे, बल्कि मनोरंजन भी थे। उदाहरण के लिए कई महिनों तक लगातार दहेज हत्याओं के विरुद्ध धरना प्रदर्शन करते हुए, नारे लगाते हुए, पोस्टर लगाते हुए स्त्री संघर्ष ने यह महसूस किया कि 'नुक्कड़ नाटक वास्तव में लोगों को संबोधित करने का सबसे सीधा और सरल तरीका था'। अनुराधा कपूर, रति बार्थोलोभ्यू तथा माया राव के प्रयासों से स्त्री संघर्ष ने 'थिएटर यूनियन' नाम की इकाई का गठन किया जिसका उद्देश्य नाटकों के माध्यम से स्त्री अधिकारों के प्रति जनता में जागरूकता पैदा करना था। 1980 में थिएटर यूनियन द्वारा 'ओम स्वाहा' नामक नुक्कड़ खेला गया जिसे जनता ने इतना पसंद किया की बाद में कई स्थानों पर इसे खेला गया। पूरे नाटक का कथानक एवं संवाद जैसा कि अनुराधा कपूर बताती हैं कि पंजाबी लोकगीत और वहाँ की स्थानीय बांली में लिखे गए। इन नाटकों ने आम लोगों के बीच ऐसा असर पैदा किया कि ज्यादा से ज्यादा लोग दहेज जैसी कुप्रथा के खिलाफ बोलने लगे और औरतों की वर्तमान दशा से मुक्ति के लिए कृतसंकल्प होने लगे। "ओम स्वाहा' जैसे नाटक ने जनता में यह संदेश फैलाने में सफलता हासिल कर ली थी कि घरों के बंद दरवाजों के भीतर अभी बहुत कुछ ऐसा है जिस पर बात किया जाना जरूरी है"।

भारत में महिला थिएटर ग्रुप के रूप में थिएटर यूनियन ने न सिर्फ दहेज हत्या जैसे मुद्दों को उठाया बल्कि सती-प्रथा और पुलिस हिरासत में होने वाले बलात्कारों को भी अपने प्रदर्शनों में मुद्दा बनाया। बलात्कार के मुद्दे को नाटक दफा 108 में उठाते हुए पुलिस हिरासत में महिलाओं के अधिकारों से दर्शकों को अवगत कराया जाता। समूह ने इस नाटक को कॉलेजों, पार्कों तथा उन झुग्गी बस्तियों में कई-कई बार दिखाया जहाँ की औरतों को पुलिस वेश्या होने के संदेह पर गिरफ्तार करती थी और जेल के अंदर महिलाएँ कई दिनों तक बलात्कार का शिकार होती थीं। दिल्ली में थिएटर यूनियन के अतिरिक्त भारत के अन्य शहरों और गाँवों में भी कई थिएटर कार्यशालाओं का आयोजन किया गया जिसमें 'जन नाट्य मंच' जिसे माला हाशमी चला रही थीं, शमशुल इस्लाम की 'निशांत' जिसमें हबीब तनवीर और बादल सरकार जैसे कार्यकर्ता शामिल थे, आह्वान जैसे संगठन सभी साथ मिलकर आवाज उठा रहे थे। इनमें से कई समूहों ने अपने नाटक खुद लिखे और खुद ही उनका निर्देशन किया। झुग्गी-बस्तियों, सड़कों, पब्लिक-पार्कों, फुटपाथों, विश्वविद्यालय-परिसरों में इन नाटकों को खेलते हुए आवश्यकतानुसार इसमें परिवर्तन और संशोधन भी किए जाते रहे।

इन संगठनों के अतिरिक्त कई छोटे-मोटे संगठन भी थे जिन्होंने अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान दिया परंतु मुख्यधारा की मीडिया द्वारा उसका दस्तावेजीकरण नहीं किया जा सका। 1991 में हेमा रैंकर के निर्देशन में 15 किसान महिलाओं और दो पुरुषों के साथ किए गए नाटक 'अबला स्त्री' पर एक सामूहिक चर्चा आयोजित की गई और इसी के आधार पर एक और नाटक भी किया जिसका नाम था, 'सामाजिक बंधन'। स्त्री मुक्ति संगठनों ने 'मुलगी झाली आहे' नामक नाटक किया जिसे महाराष्ट्र के 2000 लोगों के बीच प्रदर्शित किया गया। वे सभी कार्यकर्ता जो सामाजिक मुद्दों पर नाटक किया करती थी, उन्हें नुक्कड़ नाटक में यह संभावना दिखती थी कि वे अपने मुद्दों और प्रतिरोध को सडक पर ला सकें। महिलाओं के अधिकारों के लिए अभियान चला सकें तथा मीडिया, राजनीति और सरकार की स्त्री संबंधी नीतियों एवं कार्यक्रमों में हस्तक्षेप कर सकें।

महिलाओं के थिएटर की एक और ध्यान वाली बात यह थी कि वे अपनी घरेलू जिंदगी की तकलीफों और समस्याओं को जाहिर करने के लिए मशहूर नारों और लोक परंपराओं का सहारा लेती थी। खासतौर पर, नारों के जरिए वे नाटकों को बोझिल और उबाऊ बनाने की बजाए रोचक और मरोरंजन बनाती थीं। साथ ही, इस क्रम में वे दर्शकों के साथ एक रिश्ता भी बनाती थीं। वे जताती थी कि जिस तरह हमारे गीत तुम्हारे है, उसी तरह हमारे संघर्ष भी तुम्हारे हैं। कई थिएटर ग्रुप ऐसे भी थे जो अपना शीर्षक ही ऐसा चुनते जिसमें सामूहिकता का बोध हो। उनके नाम से ही दर्शकों को उनके एजेंडे के बारे में पता लग जाता था। वे सभी समस्याएँ जिनका सामना औरतें कर रही थीं उन्हें सिर्फ एक सामाजिक कारण के रूप में ही नहीं देखा गया बल्कि उन्हें जाहिर करने के लिए नाट्य प्रविधि का भी सहारा लिया गया। इन संगठनों ने इस कार्य के लिए बड़ी संख्या में महिलाओं को कलाकार, लेखिका तथा कहानी सुनाने वाली के रूप में शामिल किया। अपनी कहानी कहते हुई अभिनेत्रियाँ सिर्फ अपने व्यक्तिगत अनुभवों पर ही केंद्रित नहीं थी, बल्कि वे उन तरीकों को भी उजागर करती थीं जिनके द्वारा सामाजिक मूल्यों एवं अपेक्षाओं की परिधि में उन्हें बांधकर रखने का प्रयास करती थीं। नाटकों को रचने की प्रविधि में भी यह कोशिश की जाती थी कि उनकी आपबीती को साझा करने के क्रम में ही नाटक का कथानक भी तैयार हो सके और थोड़ी बहुत फेरबदल के साथ उसे प्रस्तुत किया जा सके। इसका अर्थ यह था कि दर्शकों के बीच से ही सवाल पैदा हों और उन सवालों को स्त्री सशक्तिकरण के संदर्भ में समझने की कोशिश की जाए। कई महिला कलाकारों ने इसमें काम करते हुए 'सामाजिक सम्मान' का भी अनुभव किया।

भारत में 1970 के अंतिम एवं 80 के प्रांरभिक दशक में जब जन नाट्य मंच की स्थापना हुई तब महिला आंदोलन महिलाओं के प्रति हो रही घरेलू एवं सामाजिक हिंसा पर अपना ध्यान केंद्रित किए हुए था। 'जनम' ने अपने शुरुआती दिनों से ही लिंग-आधारित भेद-भाव के प्रति आम जनता के बीच में चेतना जागृति का कार्य प्रारंभ कर दिया था। इसी क्रम में उसने 'औरत' नामक नाटक खेला। 1979 में स्त्री शक्ति नामक एक संगठन बना जिसका मुख्य मुद्दा दहेज विरोध था। इस संगठन द्वारा 'ओम स्वाहा' नामक नाटक खेला गया जिसकी अखबारों में खूब चर्चा और सराहना हुई। इसे बाद में भारत के हर भाग में मंचित किया गया। इसी प्रकार वो बोल उठी, बहू, रुदाली, बेटी आई है इत्यादि कुछ ऐसे नाटक थे जो बहुत मशहूर हुए। इन नाटकों ने महिला आंदोलन को मजबूती प्रदान की तथा इसके माध्यम से जनता को पितृसत्ता की संरचना और उसके शोषण के ताने-बाने को समझने में मदद मिली।

यह अपने आप में एक रोचक इतिहास है कि पिछ्ले डेढ़ सौ सालों में महिलाओं ने किस प्रकार अपनी जगह इस दुनिया में बनाई। रंगमंच के शुरुआती दौर से सामाजिक स्वीकार्यता, सम्मान तथा समान अधिकार पाने के लिए उन्होंने बहुत संघर्ष किया। महिलाओं ने हर कदम पर असमानता एवं सामाजिक हीनता की स्थिति का सामना किया। हम सभी इस इतिहास से परिचित है कि नटी विनोदिनी जो बंगाल की एक अभिनेत्री थीं, उन्होंने सिर्फ अपने नाम पर एक थिएटर की इच्छा के कारण एक धनाढ्य के साथ रहना तक स्वीकार किया था।16 लेकिन स्थिति बदली और दो मशहूर थिएटर हाऊस मुंबई का 'पृथ्वी थिएटर' और बेंगलुरू का 'रंग शंकर' महिलाओं द्वारा देखे गए स्वप्न के परिणाम के रुप में हमारे सामने आए। यहाँ महत्वपूर्ण है कि जब भी महिलाओं ने रंगमंच की बागडोर सँभाली, उन्होंने उसमें अपनी संवेदना और सरोकारों को भी शामिल किया जो उनकी पहचान से ज्यादा मायने रखते थे। वे समाज के साथ व्यापक तौर पर जुड़ाव चाहती थीं। दूसरे शब्दों में, महिलाएँ रंगमंच की दुनिया में अपना कमरा चाहती थीं, लेकिन जो दुनिया उन्होंने बनाई वह कभी उनकी खुद की नहीं रही।

इतनी सारी उपलब्धियों के बावजूद अभी भी महिलाओं पर केंद्रित रंगमंचीय गतिविधियों का अभाव है। अभिनेत्रियों, रंगकर्मियों तथा कार्यकताओं द्वारा किए गए साहसिक कार्यों तथा संघर्षों का अध्ययन किया जाना आवश्यक है। पिछले डेढ़ सौ वर्षों में वह दुनिया जो महिलाओं के लिए सर्वथा वर्जित थी, उसी रंगमंच का उपयोग महिला आंदोलन ने एक रणनीति के रूप में अपने मुद्दों को उठाने तथा लोगों के बीच उसके प्रति संवेदनशीलता पैदा करने के लिए किया। इस दृष्टि से भी रंगमंच के पंरपरागत इतिहास के बरक्स नारीवादी दृष्टि से इसके इतिहास का पुनर्लेखन एवं पुनरावलोकन किया जाना आवश्यक है।

संदर्भ

1. David Willmar, Theatricality, mediation and Public space: The legacy of Parsi Theatre in South Asian Cultural History, Ph.D Thesis (unpublished), may 1999.Page.17.

2. चटर्जी पार्थ, द नेशनलिस्ट रिशोल्यूशन ऑफ वीमेन क्वेशचन, पोस्ट कोलोनियल डिस्कोर्स:एन एँथोलोजी, ऑक्स्फोर्ड ब्लैक्वेल पब्लिशर, 2001, पृ.23

3. डॉ लक्ष्मी नारायण लाल, पारसी हिंदी रंगमंच, राजपाल एण्ड सन्स, पृष्ठ. 36-37

4. रणवीर सिंह, पारसी थियेटर, राजस्थान संगीत नाटक कला अकादमी, जोधपुर, 1990, पृ. 85.

5. Kathryn Hansen, Making Women Visible: Gender and Race Cross-Dressing in the Parsi Theatre, Theatre Journal, Vol. 51, No. 2 (May, 1999), pp. 127-147.

6. पारसी रंग पूर्वा, मुद्रा राक्षस, रंग-प्रसंग, जनवरी-मार्च,2005, अंक-1.

7. Bandyopadhyay, Samik. 2000 Years: A Tolly gunge Club Perspective, Statesman Printing Press. Calcutta,1981.

8. Bandyopadhyay, Samik. 2000 Years: A Tolly gunge Club Perspective, Statesman Printing Press. Calcutta, 1981.

9. Bandyopadhyay, Samik. 2000 Years: A Tolly gunge Club Perspective, Statesman Printing Press. Calcutta, 1981.

10. Dutt, Vishnu Priya, Munsi, Urmimala Sarkar, Engendering Performance: Indian Women Performers in Search of Identity, Sage Publication, New Delhi, 2010.

11. कु. सत्यवती, रंगमंच पर स्त्रियाँ का स्थान, माधुरी, वर्ष -10, खंड -1, 1931, संख्या .5

12 . ब्रजमोहन वर्मा, रंगमंच और स्त्रियाँ, माधुरी, वर्ष -10, खंड -1, 1931, संख्या 6.

13 . गृह पत्नी या कला देवी, रामकृष्ण, चाँद, अप्रैल, 1940, पृ.103.

14 . kanika Batra, In Alliance with the women's movement, 2008.

15 . Bhatia Nandi, Bringing women's struggles to the streets in postcolonial India, Act of Authority/Act of resistance: Theatre and Politics in colonial and post colonial India, oxford University Press,2004.

16 . औरतें और रंगमंच, विशेषांक, नुक्कड़, अप्रैल-सितंबर, 2007, अंक - 35-36.


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