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कविता

अड़ियल साँस

केदारनाथ सिंह


पृथ्वी बुखार में जल रही थी
और इस महान पृथ्वी के
एक छोटे-से सिरे पर
एक छोटी-सी कोठरी में
लेटी थी वह

और उसकी साँस
अब भी चल रही थी
और साँस जब तक चलती है
झूठ
सच
पृथ्वी
तारे - सब चलते रहते हैं

डाक्टर वापस जा चुका था
और हालाँकि वह वापस जा चुका था
पर अभी सब को उम्मीद थी
कि कहीं कुछ है
जो बचा रह गया है नष्ट होने से
जो बचा रह जाता है
लोग उसी को कहते हैं जीवन
कई बार उसी को
काई
घास
या पत्थर भी कह देते हैं लोग
लोग जो भी कहते हैं
उसमें कुछ न कुछ जीवन
हमेशा होता है

तो यह वही चीज थी
यानी कि जीवन
जिसे तड़पता हुआ छोड़कर
चला गया था डाक्टर
और वह अब भी थी
और साँस ले रही थी उसी तरह

उसकी हर साँस
हथौड़े की तरह गिर रही थी
सारे सन्नाटे पर
ठक-ठक बज रहा था सन्नाटा
जिससे हिल उठता था दिया
जो रखा था उसके सिरहाने

किसी ने उसकी देह छुई
कहा - 'अभी गर्म है'
लेकिन असल में देह याकि दिया
कहाँ से आ रही थी जीने की आँच
यह जाँचने का कोई उपाय नहीं था
क्योंकि डाक्टर जा चुका था
और अब खाली चारपाई पर
सिर्फ एक लंबी
और अकेली साँस थी
जो उठ रही थी
गिर रही थी
गिर रही थी
उठ रही थी...

इस तरह अड़ियल साँस को
मैंने पहली बार देखा
मृत्यु से खेलते
और पंजा लड़ाते हुए
तुच्छ
असह्य
गरिमामय साँस को
मैंने पहली बार देखा
इतने पास से

 


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