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कविता

दृश्ययुग-1

केदारनाथ सिंह


मन हुआ चुप रहूँ
फिर कुछ मिनट बाद
चुप्पी खलने लगी
फिर किसी ने मेरे अंदर
जैसे गाने की जिद की
यह कोई अन्य था
जिसे मैं जानता नहीं था
पर छू सकता था

फिर यह सच कि छूना
हाथ का अपना एकाधिकार है
जीभ के प्रतिवाद से
निरस्त हो गया
फिर एक विवाद शुरू हुआ
समूचे शहर में
स्वाद और ध्वनि
और दृश्य और स्पर्श के बीच
और इस पूरी युद्ध-भूमि में
स्पर्श का भयानक अकेलापन मैंने देखा
और जब देखा न गया
तो एक कवच की तरह
उसी को पहनकर
चला गया दफ्तर।

 


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