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कविता

कुछ टुकड़े

केदारनाथ सिंह


1.

जिससे मिलने गया था
उससे मिलकर जब बाहर आया
सोचा, ये जो विराट इमारत है
ब्रह्मांड की
क्यों न हिला दूँ
इसकी कोई ईंट
इस अद्भुत विचार से रोमांचित
अभी मैं खड़ा ही था
कि ठीक मेरे सामने
एक छोटा पत्ता टूटकर गिरा
और मैंने देखा ब्रह्मांड
हिल रहा है।


2.

उस बूढ़े भिखारी को
आज भी देखा
पर आज उस पर दया नहीं आई
दया आई तो खुद पर
कि देखो न इस गावदी को
कि बीसवीं शताब्दी के
इस अंतिम दशक में भी
एक भिखारी पर दया करने की
हिमाकत करता है।


3.

और यह तो आप जानते ही होंगे
पर मेरा दुर्भाग्य कि मैंने इतनी देर से
और बस अभी-अभी जाना
कि मेरे समय के सबसे महान‍ चित्र
पिकासो ने नहीं
मेरी गली के एक बूढ़े रँगरेज ने
बनाए थे।

 


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