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कविता

खर्राटे

केदारनाथ सिंह


मेरी आत्मा एक घर है
जहाँ अपने लंबे उदास खर्राटों के साथ
यह दुनिया सोती है
और मैं सोता हूँ उसके बाहर|
मैदान में

और मैदान
चूँकि मैदान के बाहर कहीं जा नहीं सकता
इसलिए कँटीली झाड़ियों पर
टिका देता है सिर
और एक पत्थर जैसी गरिमा
और धैर्य के साथ
सहता है मेरे खर्राटों को
जिन्हें गिरगिट-झींगुर सब सुनते हैं
एक मुझे छोड़कर।

 


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