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कविता

प्रकाश मनुष्यता की गंध को पहचानता है

अशोक गुप्ता


अँधेरा
चुटकी भर है, बस
और सघन है
सुई की नोक भर,
उतना ही चुभता है।

प्रकाश अनंत है
मनुष्य की पीठ पर बँधे सूरज से फूटता,
स्वतंत्र हैं मनुष्य के दोनों हाथ
ताकतवर,
उन्मुक्त है
मनुष्य का कंठ स्वर
पुकार कर, वापस टेर सकने के लिए
भटक गई मनुष्यता को,
प्रकाश
मनुष्यता की गंध को पहचानता है।

जो कुछ
ठहरा हुआ है कुहासा
रचता हुआ आर्तनाद,
छापता हुआ
दीवारों पर
रक्त सनी हथेली की लाल आकृतियाँ,
वह
सिर्फ तब तक है
जब तक पृथ्वी जीती है
सूर्यास्त की बेला।
पीठ पर सूरज बांधे ताकतवर मनुष्य को
जरूरत पड़ने पर
धधक उठना आता है मशाल की तरह।

उजली संभावनाएँ मनुष्य के लिए
कभी
पहेली नहीं हैं।

 


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