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हूँ वही लफ़्ज़ मगर और मआनी में हूँ मैं
अबके किरदार किसी और कहानी में हूँ मैं
जैसे सब होते हैं वैसे ही हुआ हूँ मैं भी
अब कहाँ अपनी किसी ख़ास निशानी में हूँ मैं
ख़ुद को जब देखूँ तो साहिल पे कहीं बैठा मिलूँ
ख़ुद को जब सोचूँ तो दरिया की रवानी में हूँ मैं
ज़िंदगी! तू कोई दरिया है कि सागर है कोई
मुझको मालूम तो हो कौन से पानी में हूँ मैं
जिस्म तो जा भी चुका उम्र के उस पार मेरा
फिक्र कहती है मगर अब भी जवानी में हूँ मैं
आप तो पहले ही मिसरे में उलझ कर रह गए
मुंतिज़र कब से यहाँ मिना-ए-सानी में हूँ मैं
पढ़के अशआर मेरे बारहा कहती है ग़ज़ल
कितनी महफ़ूज़ तेरी जादू-बयानी में हूँ मैं
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