''ले ले ! ले ले !''
''अबे हट!''
''तू हट!''
''क्यों हटूँ? ... तेरे बाप का राज है?''
''देख बाप का नाम मत लेना।''
''वाह! ... जमे रहो प्यारे!''
''हाय राजा!''
''वो मारा!''
''अबे मेरे पैर से पैर हटा।''
''एक धरूँगा, बत्तीसी बाहर आ जाएगी।''
''क्या कर लेगा तू?''
''बताऊँ, क्या कर लूँगा?''
''अरे-अरे! ... देखो वह जा रहा है।''
''कहीं पीछे से न निकल जाए।''
''पकड़ो! धर लो! जाने न पाए!''
''मारो साले को!''
''खबरदार, जो किसी ने हाथ लगाया...''
ऐसे ही न जाने कितने स्वर मधुमक्खियों की भिनभिनाहट की तरह वहाँ गूँज रहे थे। मैंने देखा कि एक बोर्डरहित दुकान के बाहर लगभग सारा गाँव जमा था। लोग एक-दूसरे की कमर, पीठ और सिरों पर टूटे पड़ रहे थे। उस दुकान के भीतर मानो मुर्गों की लड़ाई चल रही थी, जिन पर वे लोग दाँव लगा रहे थे और अपने-अपने मुर्गों को जीत के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे।
अचानक गाँव के उस राशन दुकानदार ने सबको बाहर ढकेलकर भट से दुकान बंद कर ली। लोग जोर-जोर से उसका दरवाजा पीटने लगे और अपने-अपने कंधों से उस पर टक्करें मारने लगे। मगर कुछ ही देर में उन अति उत्साही लोगों को मालूम हो गया कि उनके कंधे निहायत कमजोर हैं और दरवाजा बहुत मजबूत। उस ढीठ दुकानदार घबडूराम ने अब अपने कानों में तेल डाल लिया था और गाँव वालों को उनके हाल पर मरने-जीने के वास्ते छोड़ दिया था।
बहुतों ने अपनी राह पकड़ी और अपने भाग्य अथवा राशन-विक्रेता घबडूराम को कोसते हुए अपने घर को चल दिए। परंतु झोलाराम अशांत जैसा आदमी इतनी आसानी से मानने वाला नहीं था। उसने पहले घबडूराम के दरवाजे की ओर मुँह करके भ्रष्टाचार और उसमें लिप्त नौकरशाही की बदौलत पनपने वाले लाखों अबडू-घबडू जैसे कीड़े-मकोड़ों पर एक फर्राटेदार भाषण वहीं दे डाला। फिर उसी आवेश में रामलाल धोबी की गर्दन पर एक हाथ झाड़ता हुआ वापस चल दिया।
''चलो जी रामलाल!'' झोलाराम अशांत ने कहा - ''घबडूराम को तो मैं देख लूँगा।''
''झोला भइया! शांत हो जाओ। ... अरे काहे को अपना खून जलाते हो?'' रामलाल अपनी गर्दन सहलाते हुए कह रहा था।
''काहे नहीं क्रोध करूँ?'' ये साला दस बोरा चीनी के बजाय पाँच बोरा ही लेकर शहर से चलता है। पाँच बोरा वहीं ठिकाने लगा आता है। तीन बोरा मुश्किल से बाँटता है और दो बोरा हरामखोर अपने रिश्तेदारों को खिला देता है। ... मुझे ढाई सौ ग्राम चीनी दे रहा था। मैंने साले के मुँह पर मार दी। तुझे कुछ मिली?''
''ऊँहुअ!...'' रामलाल ने अमचूर की तरह मुँह बनाकर कहा - ''बस आधा लीटर मिट्टी का तेल दिया इस बार।''
''तो जा... उसे अपने मूँड़ पर डालकर दियासलाई दिखा दे। ... अरे, इसीलिए तो कहता हूँ कि तुम लोगों से कुछ नहीं होने वाला। बस, बैठे-बैठे चिलम पिया करो। ... अरे, जब तक हमारे देश में खूनी क्रांति नहीं आएगी ये घबडूराम जैसे साँप हमारी आस्तीनों में यों ही पलते रहेंगे। ये ऊँची जात वाले दलित समाज के साथ इसी तरह से...''
वे दोनों इसी तरह बतियाते हुए अपनी राह निकल गए। मैंने यह सोचकर अपनी राह पकड़ी कि क्या कभी वास्तव में इस देश में कोई क्रांति आएगी? यदि आएगी तो क्या वह क्रांति रक्तरंजित भी होगी? यदि वह रक्तरंजित हुई तो क्या उसकी लपेट में केवल घबडूराम जैसे छुटभइये राशन-विक्रेता ही आएँगे? अथवा कालाबाजार से जुड़े व्यापारी, कर्मचारी, अफसर और नेता भी नापे जाएँगे? ...''
कालाबाजारिए, सटोरिए और मिलावटबाज ही क्यों? जनता से और भी अधिक प्रकार से छल करने वाले लोग हैं। उन सबका क्या होगा? ...
क्या क्रांतिदेवी उन डॉक्टरों को बख्श देंगी, जो अनपढ़ रोगियों को दवा के इंजेक्शन देने के बजाय 'डिस्टिल्ड वाटर' की सुई लगाकर मूर्ख बनाते हैं और फीस के नाम पर उनकी खाल खींच लेते हैं? ...
क्या उन इंजीनियरों को भी मृत्युदंड मिलेगा, जिन्होंने न्याय को महज एक खिलवाड़ और दलाली की पोषक वस्तु बना दिया है? ...
सत्ता के गलियारों से लेकर कार्यालयों में भ्रष्टाचार की जो अदृश्य धारा बह रही है, क्या उसे कोई देशभक्त तानाशाह अवतरित होकर एकाएक रोक पाएगा? ...
राम जाने वह दिन कब आएगा? ... राम का नाम याद आते ही मेरी आत्मा मुझे धिक्कारने लगी कि अरे नादान चूहे! तू रह-रहकर क्यों अपनी औकात भूल जाता है? तू है तो एक चूहा ही। फिर मानव समाज की समस्याओं और उनकी जीवनधारा के विषय में मगजपच्ची क्यों करता है? क्या हक है तुझे उनके भले-बुरे के विषय में सोच-विचार करने का? वे जिएँ चाहें मरें, तुझे उन सबसे क्या लेना-देना? अरे मूर्ख, सोचना-समझना है तो तू अपने 'मूषक जीवन' के विषय में सोच। अपने भूत-भविष्य-वर्तमान के विषय में सोच। इस तरह से जीना-रहना सीख, जो तेरे जैसे क्षुद्र प्राणी को शोभा देता हो।
परंतु मेरा मन न माना। वह मेरी आत्मा के समक्ष विद्रोह कर उठा। मेरा मन कहने लगा, मैं चूहा नहीं हूँ। मैं स्वयं को चूहा क्यों समझूँ जबकि मेरी समझ मनुष्यों जैसी ही है। यदि चूहे की देह में चूहे की समझ ही होती तो मैं मनुष्यों के बारे में सोच-विचार न करता। उनके भले-बुरे की चिंता न करता। मुझे तो चूहे की शक्ल और आदमी की अक्ल अगर मिली है तो इसमें मेरा क्या कसूर? यह भूल तो स्वयं प्रकृति की है। इसके लिए मैं स्वयं को कसूरवार क्यों मानूँ? मैं सोचूँगा और हजार बार सोचूँगा। मनुष्यों की भाँति सोचूँगा। और जब कभी नहीं सोच पाया, तभी एक मूषक की भाँति सोचूँगा।
इस तरह गाँव में तेजी से घिरती हुई उस साँझ में मेरे मन ने मेरी आत्मा पर विजय पा ली। अपने खयालों में डूबा हुआ रेंगता-रेंगता मैं कब गोपालपुर नामक उस ग्राम के प्रधान जी के घर पहुँचा, मुझे पता नहीं चला।
ग्राम-प्रधान मिसरीलाल जी अनूठे व्यक्तित्व के स्वामी थे। ऐसा लगता कि भगवान जब सारी सृष्टि रच चुके तो अपने फुर्सत के क्षणों में उन्होंने जो दो-चार पुतले बड़े इत्मीनान के साथ गढ़े उनमें से एक मिसरीलाल जी का भी था। मिसरीलाल के विषय में सर्वप्रथम उल्लेखनीय बात यह थी कि उस गाँव में वह पिछले पच्चीस वर्षों से लगातार चुने जाने वाले प्रधान थे। जैसा नाम था उनका वैसा गुण भी। कम से कम प्रत्यक्ष रूप में तो वह वैसे ही थे। लंबे, दुबले-पतले, गौर वर्ण के, सफाचट दाढ़ी-मूँछ वाले, एक सौम्य स्वभाव के व्यक्ति। शरीर पर एक बनियान, एक धोती और एक अँगोछा धारण करने वाले। लगभग आठ मास यही परिधान। जाड़ों में एक चादर अथवा कंबल शरीर पर और डाल लेते थे। उनकी वाणी में भी उनके नाम की भाँति मिसरी घुली रहती थी। स्वयं हुक्का-बीड़ी-चिलम से कोसों दूर, परंतु एक हुक्का उनकी बैठक में आगंतुकों के लिए हरदम उपलब्ध।
हाँ, मिसरीलाल जी को सुरती-चूने का शौक अवश्य था। जब उन्हें सामने वाले को कोई जीवन का गूढ़ दर्शन समझाना होता तो उनकी हथेलियों में सुरती-चूने के मसले जाने और उसे रह-रहकर पटपटाने की प्रक्रिया खुद-ब-खुद शुरू हो जाती थी। मिसरीलाल जी की गाँव के हर उस व्यक्ति से मित्रता थी जो झोलाराम अशांत नामक उस दलित नेता का विरोधी था, जो कि आजकल तेजी से उभर रहा था। उसके विपरीत जो व्यक्ति 'अशांत' जी का मित्र अथवा समर्थक था, वह निश्चित रूप से मिसरीलाल जी की गोपनीय डायरी में शत्रु के खाने में अंकित था।
मिसरीलाल जी यों तो शुकुल थे, परंतु मनुवादी व्यवस्था के खुले समर्थक कहलाने से 'वोटों की राजनीति' में पराजय के खतरों को भाँपते हुए अब कभी अपने जाति पर जोर नहीं देते थे। जबकि अशांत जी उर्फ झोला भइया उर्फ डॉक्टर जे.आर. अशांत मनुवादी व्यवस्था को कट्टर चुनौती देने वाले दलितों और कुछ हद तक पिछड़ों के भी जबर्दस्त मसीहा थे।
राजनीतिक धरातल पर पूरा गाँव स्पष्टतः दो खेमों में बँट चुका था। एक खेमे के नायक मिसरीलाल थे, जिनका चुनाव चिह्न ऊँट था। दूसरे खेमे के नायक थे अशांत जी। यह अशांत जी ही थे, जिन्होंने पिछले ग्राम-प्रधानी के चुनाव में शेर चुनाव चिह्न लेकर मिसरीलाल के ऊँट को ललकारा था और पिछले चार चुनावों में भारी बहुमत से अथवा निर्विरोध विजयी होते आए मिसरीलाल के वोट बैंक में हारते-हारते भी एक गहरी सेंध लगा दी थी।
सायंकाल का समय था। सूर्यास्त हो चुका था। प्रधान जी की बैठक के सामने खुले में चारपाइयाँ पड़ी हुई थीं। मिसरीलाल जी से मिलने वहाँ लेखपाल गंगादत्त पांडे, ग्राम विकास अधिकारी सूरजभान सिंह, राशन-विक्रेता घबडूराम गुप्ता, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र का बड़ा बाबू कन्हैया शर्मा आए हुए थे। सभी लोग विभिन्न चारपाइयों पर बैठे हुए ग्राम-प्रधान जी के मुखापेक्षी थे। प्रधान जी का छोटा लड़का मातादीन उस समय पिता के सिर पर सरसों के तेल की मालिश कर रहा था और तेल को पचा चुकने की 'स्टेज' पर था। इस समय मजेचंपी चल रही थी और मिसरीलाल जी की आँखें मुँदी हुई थीं।
प्रधान जी का बड़ा लड़का कालीप्रसाद गाय-भैंसों की सेवा-सुश्रूषा में लगे चमार टोले के बिंद्रा को कुछ दिशा-निर्देश देने में व्यस्त था। मिसरीलाल ने तभी उसे आवाज दी -
''काली!''
''जी पिताजी!''
''तनि बिंद्रा को छोड़ दे! ... देख तो कितने खास मेहमान आए हैं। जरा सुन ...''
कालीप्रसाद मिसरीलाल जी के मुख के पास अपने कान ले गया। निर्देश वाणीविहीन स्वर में दिए गए। कालीप्रसाद ने अपना सिर हिलाया और चल दिया। उसके जाते-जाते मिसरीलाल ने इतना और कहा -
''बिंद्रा से कहना कि बगिया में... और हँड़िया में।''
लेखपाल और ग्राम विकास अधिकारी ने एक-दूसरे की ओर देखा और बात का आशय समझकर मुस्कुराए। आशय स्पष्ट था। दिव्य व्यवस्था होनी थी। उन्हें विशेष आव-भगत मिलनी थी। हँड़िया में पिछवाड़े वाली बगिया में मुर्गा पकना था और वहीं रात्रिकालीन भोजन होना था। प्रधान जी की यही अदा तो निराली थी, जो प्रायः इलाके के हर मुजाजिम को अपने वश में कर लेती थी।
''तौन हम कहि रहे थे कि ई ससुरा झोला डाक्टर ई गाँव मा नसबंदी होय दे तब ना...।'' घबडूराम ने कहा।
''वह क्यों?'' बड़े बाबू कन्हैया शर्मा का प्रश्न था।
''अब ल्यो... कितने बरस हुई गए तुमका पी.एच.सी. मा?'' घबडू ने प्रतिप्रश्न किया।
''छह महीने। ... मगर यह झोला डाक्टर है कौन?''
''धन्य हो प्ररभू! ... अब परधान जी! इनका तुमहीं बताओ की ई ससुर झोला डाक्टर है कौन?''
प्रधान जी ने हाथ के इशारे से मातादीन को सिर की मालिश बंद करने का संकेत दिया। तत्पश्चात् अपनी अधमुँदी आँखें ठीक से खोलकर घबडूराम के चेहरे पर जमा दीं और एक तिरछी मुस्कान के साथ कहा -
''तुम्हीं कह दो लाला! उस बड़मनई का चरित्र। ... मेरा मुँह क्यों खुलवाते हो?''
इस पर ग्रामीण 'इनसाइक्लोपीडिया' के विशेषज्ञ घबडूराम ने वर्णन किया -
''झोला डाक्टर। याने कि चमार टोले का झोला भइया। डाक्टर झोलाराम अशांत। गोपालपुर ओर आसपास के इलाके का नटवरलाल। ... लाल-पीली गोली और ठौर-ठौर की दलाली... बामन-ठाकुर और बनिया को चोर और बाकी सबको मोर बताने वाला ई डाक्टरवा कहता है कि पंडित-परधान को वोट न दो। चमरौटी का कोई मरद सवर्णों के खेत मा मजदूरी करने न जाए। शहर में जाकर रिक्शा खींच ले, जूता पालिश कर ले, मगर मनुवादियों की गुलामी नहीं करे। ... नसबंदी तो कतई न कराए। ई एक बड़ा धोखा है। खोऽऽब बच्चे पैदा करो और एक दिन ई सड़ी-गली व्यवस्था को... इस बुजरी को पलटकर रख दो। ...''
''तो इसमें कौन-सी नई बात है? ऐसा तो सदियों से होता चला आया है।'' अबकी ग्राम विकास अधिकारी सूरजभान सिंह की बारी थी।
''क्या होता आया है भाई? ... जरा हम भी तो सुनें।'' अपने स्वर को और भी कोमल बनाते हुए प्रधान जी ने पूछा।
''यही कि हर युग में व्यवस्था के खिलाफ बोलने वाले नेता पैदा होते हैं और व्यवस्था के हिमायती उसकी पक्षधरता करते हैं। ... परंतु व्यवस्था भी चलती रहती है।''
लेखपाल गंगादत्त को लगा कि वार्ता का क्रम अब गंभीर मोड़ लेने लगा है। उससे कहीं आज का मूल उद्देश्य इधर-उधर भटक न जाए। तड़पकर बात का रुख मोड़कर उसने मिसरीलाल से कहा -
''अरे छोड़िए प्रधान जी! आप भी कहाँ दिया-बाती के समय इस पचड़े में पड़ने लगे।... ये बताइए कि आपको अपना पिछला वायदा याद है कि नहीं? इस बार तो हमें कोई कोस-वेस दिलवाएँगे ना! ...''
''हाँ-हाँ, क्यों नहीं?'' मिसरीलाल ने कहा।
गंगादत्त पुनः बोला - ''देखिए, दो केस का प्रबंध तो मैंने चिरैयाकोट से कर लिया है। अब अगर कम से कम एक केस हमें गोपालपुर से भी मिल जाता तो...''
''मिलेगा-मिलेगा लेखपाल जी। इस बार अवश्य मिलेगा।''
''धन्यवाद। मगर कौन-सा केस है? जरा साफ-साफ बताइए। ... कल ही तो नसबंदी कैंप है आपके गाँव में।'' गंगादत्त ने अधीर होते हुए कहा।
''कल ही केस होगा। काहे फिकर करते हैं?''
''और प्रधान जी, हम?'' ग्राम विकास अधिकारी ने कहा।
''मैं भी तो हूँ प्रधान जी!'' स्वास्थ्य विभाग के बड़े बाबू ने कहा।
प्रधान जी ने पलकें झपकाते हुए मधुर स्वर में उत्तर दिया - ''आप सबके लिए भी कुछ न कुछ प्रबंध हो जाएगा। चिंता न करें।''
''मगर परधान जी, वह झोला डॉक्टर?'' घबडू ने टोका।
''उसकी फिकर तुम न करो लाला! उसे तो देख लेने को मेरा काली ही काफी है।'' प्रधान जी ने आश्वस्त भाव से कहा।
लेखपाल गंगादत्त से फिर भी न रहा गया। पूछ ही बैठा - ''मुझे कल कौन-सा केस दे रहे हैं?''
''रामप्यारी!... क्यों लाला? रामप्यारी कैसी रहेगी?''
इस पर लाला घबडूराम सकपकाकर जमीन खोदने लगे। गंगादत्त के मुँह से निकला -
''रामप्यारी? ... मगर वह तो विधवा है?''
प्रधान ने धीरे से हँसते हुए कहा -
''कल वह विधवा के भेस में नसबंदी कैंप पर नहीं जाएगी।''
ग्राम गोपालपुर में विशेष नसबंदी शिविर लगा था। जिला मुख्यालय से आई चिकित्सा टीम, एस.डी.एम., बी.डी.ओ. तथा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की गाड़ियाँ खड़ी थीं। जिला चिकित्सालय से आई एक एंबुलेंस गाड़ी भी खड़ी थी। सामुदायिक विकास केंद्र के कमरे को ऑपरेशन थियेटर का रूप दे दिया गया था। उसमें ऑपरेशन की दो टेबलें सजाकर एक कोने में ऑपरेशन करने के औजार खौलते पानी में पकाए जा रहे थे।
बाहर एक शामियाने के नीचे अधिकारीगण पास-पास कुर्सियाँ जोड़े देश की गंभीर समस्याओं पर विचार-विमर्श कर रहे थे। कभी-कभी विषयांतर होने पर उनके बीच चुटकुलेबाजी भी हो जाया करती थी।
विभिन्न विभागों के कर्मचारीगण नसबंदी केसों के फार्म भरने में इस प्रकार व्यस्त थे मानो वे हाईस्कूल और इंटरमीडिएट की बोर्ड परीक्षाओं में फिर से भाग लेने जा रहे हों।
एक डॉक्टर और एक डॉक्टरनी ऑपरेशन थियेटर के अंदर थे सफेद एप्रेन में। एक चश्मा लगाए गंजे सिर के डॉक्टरनुमा सज्जन एक टेबल पर झुके हुए नसबंदी फार्म चेक कर रहे थे। उनकी मेज-कुर्सी ऑपरेशन थियेटर के बाहर वाले बरामदे में पड़ी थी और उन्हें कई लोग घेरे खड़े थे। उनमें से एक लेखपाल गंगादत्त भी था।
गंगादत्त आज अपने साथ तीन केस लाया था - दुलारी, बिब्बो और रामप्यारी। इनमें से रामप्यारी की आयु यद्यपि तीस वर्ष थी, किंतु दुलारी और बिब्बो की आयु क्रमशः चालीस और पचास वर्ष थी। गंगादत्त चाहता था कि फार्म जाँचने वाले डॉक्टर साहब दुलारी और बिब्बो की आयु भी तीस-पैंतीस के आस-पास ही लिख लें। उसे विश्वास था कि सामने बैठे सज्जन वास्तव में भद्र पुरुष हैं और वह उसकी अवश्य सुनेंगे। इसलिए उसके स्वर में चिरौरी का भाव विशेष रूप से परिलक्षित हो रहा था।
ग्राम विकास अधिकारी जो किसी जमाने में ग्राम-सेवक कहलाता था, बिंद्रा नामक एक विधुर को नसबंदी कराने हेतु वहाँ लाया था। यद्यपि बिंद्रा की पत्नी को मरे हुए चार वर्ष हो चुके थे, किंतु फिर भी नसबंदी के लिए वह एक 'फिट केस' समझा गया था। क्या पता भविष्य में उसका दिल किसी पर आ जाए? कहीं कुछ गड़बड़-सड़बड़ कर बैठे? कंबख्त देखने में भी तो पूरा हट्टा-कट्टा मुस्टंडा था।
प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के बड़े बाबू शर्मा जी की पत्नी एक अनुभवी ए.एन.एम. थीं। उनके द्वारा केवल पाँच नसबंदी के फार्म ही भरे गए थे, जिन पर हाथ के और कुछ जगह तो पैर के अँगूठों के निशान थे। उनके केस अंतर्धान थे। पर उनका दावा था कि वे समस्त महान आत्माएँ अपना ऑपरेशन करवाने के लिए सीधे ऑपरेशन कक्ष में और सीधे ऑपरेशन टेबल पर ही प्रकट होंगी।
इस प्रकार उस नसबंदी शिविर में अनेक परिवारों का कल्याण हो रहा था। जनसंख्या-विस्फोट नामक राक्षस का वध करने के लिए सभी लोग अपने-अपने तरीकों से जूझ रहे थे। उस राक्षस के विनाश की आधिकारिक खबरें चारों ओर तेजी से फैल रही थीं और विश्व बैंक अपनी सहायता रूपी ऋण की थैली का मुख खोलकर मेरे देश को पुनः कुछ सौगात देने को उद्यत हो रहा था। उस सहायता का कुछ न कुछ अंश अनाज के दानों या रोटी के टुकड़ों की शक्ल में आखिर मुझ तक भी पहुँचेगा। यही सब सोचता हुआ मैं आगे बढ़ गया। कालचक्र चल रहा था।
मेरा मस्तिष्क वह सब देखकर बड़ी तेजी से किसी घड़ी की भाँति टिक-टिक करने लगा। ये इंसान जो हम चूहों से इतना परेशान रहा करते हैं, आखिर क्यों नहीं हमारी भी नसबंदी करने का विचार करते हैं? हम पर आरोप है कि हम उनके अन्न के भंडार खाली किए डाल रहे हैं। यदि हमारी भी नसबंदी हो जाए तो क्या बुरा है?
वैसे चूहों की नसबंदी करना अधिक श्रम-साध्य होगा। उसमें खतरा भी होगा। क्या पता कभी मुझ जैसे कुँवारे अथवा बाल-ब्रह्मचारी की भी भूल से नसबंदी हो जाए? इसलिए इन्हें तो चुहियों की नसबंदी करने पर ही अपना अधिक ध्यान केंद्रित करना चाहिए। परंतु उससे भी पहले चूहे-चुहियों के समाज में जागरण लाना नितांत आवश्यक होगा, क्योंकि परिवार को सीमित रखने से होने वाले लाभों को समझाए बिना उन्हें ऑपरेशन टेबल पर लिटाना तो दूर, वहाँ तक ला पाना भी संभव नहीं होगा। देश की खाद्यान्न समस्या यदि इतने से ही हल हो जाती तो कितना अच्छा होता। लेकिन ऐसा भला हो तो हो कैसे? अगर चूहा-समाज ने भी स्वयं को प्रस्तुत करने के स्थान पर मात्र नसबंदी फार्म भरने की खानापूरी करनी-करानी प्रारंभ कर दी तो क्या यह सारा अभियान एक दिन धरा का धरा नहीं रह जाएगा?