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कविता

दीमकों का जलूस

अभिमन्यु अनत


सीने के सामने के कवच को
भीतर से नुकीले दाँत निकल आये हैं
इसीलिए अब ढाल के होते हुए भी
हम निस्सहाय हैं -
बरगद के पेड़ की तरह
जमीन को दूर तक
अपने शिकंजों में लिये हुए भी
तूफानों के इस देश में
बरगद का विस्तृत और संपन्न वृक्ष
धराशायी हो जाता है
अन्य वृक्षों से पहले ही
सभी सुविधाओं के बावजूद कि
लिजलिजेपन की हमारी स्थिति
हमें निहत्थेपन को ढकेले जा रही
और हम
अपने रंग-बिरंगे कपड़ों के भीतर भी
नंगे हैं।

और
अपनी विस्तृत फैली जड़ों के बावजूद
हम उखड़ते चले जाते रहे हैं
हमारे ऊपर से गुजर रहा है
दीमकों का लंबा जलूस !!

 


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