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कविता

गुलमोहर खौल उठा

अभिमन्यु अनत


छुईमुई से लजीले उन फूलों को
जब तुम आँखें झुकाए तोड़ रही थीं
तो आँखें मेरी टिकी हुई थीं ऊपर को
जहाँ मेरी धमनियों के खून-सी
अकुलाहट लिये
उफन आए थे
मेरे खून से भी लाल गुलमोहर के फूल।
तुम जितनी शांत बैठी रहीं
पूजा पर
मैं अपने में उतनी ही खलबली
लिये रहा
तुम्हारे सामने थाली में
तुम्हारे ही बटोरे हुए
कई रंगों के फूल थे
मेरी छाती पर कौंध रहे थे
उष्णता, अकुलाहट
और विद्रोह के गुलमोहर।
तुम आज भी सोचती हो
भगवान को रिझा लोगी
और मैं
फाँसी की सजा से बच जाऊँगा
तुम कभी नहीं समझोगी मेरी बात
अपने इन हाथों को मैंने
बकरे की बलि से लाल नहीं किया है
ये तो रंगे थे उस भेड़िये के खून से
जिसे मैंने और तुमने
भेड़ समझकर
दिखा दिया था बस्ती का रास्ता।
मेरे अपने भीतर
आज फिर खौल उठा है गुलमोहर
और मैं
अपने हाथों को एक बार फिर
लाल करना चाह रहा
उस मूर्तिकार और उस कवि के खून से
जो शाही खजाने से
बना रहे हैं
उस भेड़िये की मूर्ति
और लिख रहे हैं उस पर एक दूसरा पृथ्वी रासो।

 


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