मेरे पूर्वजों के साँवले बदन पर जब बरसे थे कोड़े तो उनके चमड़े लहूलुहान होकर भी चुप थे चीत्कारता तो था गोरे का कोड़ा ही और आज भी कई सीमाओं पर बंदूकें ही तो चिल्ला-कराह रही हैं भूखे नागरिक तो शांत सो रहे हैं गोलियाँ खाकर।
हिंदी समय में अभिमन्यु अनत की रचनाएँ