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कविता

निशुल्क मौत

अभिमन्यु अनत


शीशमहल-सा विशाल अस्पताल
चिकने चमकते गलियारे में खाँसते-लंगड़ाते
कराहते-काँपते रोगियों का हुजूम
सुस्त चाल में इधर से उधर मंडराती
लोगों के दर्दो के बीच खिलखिलाती
चहकती इठलाती बीमार परिचारिकाएँ
सुबह पाँच बजे अपने घर से निकली
बिन खाये बिन पीये थर-थर काँप रही
बाईस मील के सफर के बाद पहुँची वह बुढ़िया
लकड़ी की बैंच पर बैठे
साढ़े पाँच सख्त घंटे बीत चुके।
पिछली बार खाली शीशी लिये लौट गयी थी
अस्पताल में दवा नहीं थी
उससे पहले थी डाक्टरों की हड़ताल
बीमार डाक्टर नियत वक्त से
तीन घंटे बाद पहुँचा
उसकी प्रतीक्षा में बैठे पैंतीस रोगियों ने
एक साथ राहत की एक साँस ली
परिचारिका को भीतर करके
डाक्टर ने दरवाजा बंद कर लिया
घंटों इंतजार करते लोगों को पीछे से
पंद्रह विशेष लोग आये
सीधे दरवाजे के पास खड़ हुए
पंद्रह मिनट बाद दरवाजा खुला
परिचारिका बालों पर हाथ फेरती
हँसती हुई बाहर आयी
भीतर से लायी हँसी को निगल कर
दरवाजे के पास खड़े
विशेष रोगियों में से एक को भीतर भेजा
पंद्रह मिनट बाद फिर दूसरे को फिर तीसरे को
साढ़े पाँच घंटों से बैठी वह बुढ़िया
लकड़ी की बैंच पर कराहती रही
पाँच घंटों से बैठा एक बीमार जवान बोला
हम लोग पहले से आये है, ये लोग बाद में
परिचारिका झुँझलायी
मैं तुम्हारे हुक्म से काम नहीं करती
और डाक्टर के घर से होकर आये हुए
उन विशेष रोगियों को
डाक्टर की दूकान में एक-एक करके भेजती रही।
दो घंटे बीत गये
लकड़ी की कठोर बैंच पर
पैंतीस गरीब रोगी इंतजार करते रहे
बाईस मील की दूरी से पहुँची
साढ़े सात घंटों से प्रतीक्षा करती वह बुढ़िया
लकड़ी की सख्ती पर लुढ़क गयी
सरकारी अस्पताल में
डाक्टर की दुकान की सरगर्मी बनी रही
पड़ा रहा निश्चल लकड़ी की बैंच पर
प्रतीक्षा का ठंडा जीवन
और ऐसा तो कई बार हो जाता है।
अस्पताल के बाहर कुत्ते मरते रहते हैं।
आदमी तो अस्पताल के भीतर मरते हैं।

 


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