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कविता

ओ स्निग्धा !

ब्रजेंद्र त्रिपाठी


मेरे सामने बैठे हुए भी
कभी-कभी वह नहीं होती यहाँ
होती है कहीं दूर
शताब्दियों पार
समय के न जाने किस अंतराल में ?

कुछ पूछता हूँ मैं
नहीं पहुँचते मेरे शब्द उस तक
किसी निर्जन में पुकारे गए-से
लौट आते हैं अनुगूँज पैदा करते हुए।

कभी-कभी आश्चर्य होता है मुझे
यूँ बैठे-बैठे
कहाँ खो जाती हैं लड़कियाँ
समय के किस आयाम
में अदृश्य हो जाती हैं
जहाँ नहीं पहुँच पाते हैं हम।

कौन-से दुख हैं
जिनमें घुलती रहती हैं वे निरंतर
किस अजाब का साया
फैलाए रहता है अपने पर।

कौन-से सपने हैं
उनकी आँखों में
जो तामीर नहीं हो पाते ?


2 .

ओ स्निग्धा !
मैं चाहता हूँ
तुम्हारे दुख बाँटना
तुम्हारे सपनों की दुनिया से परिचित होता
जाना चाहता हूँ तुम्हारे साथ
समय के उस आयाम में
जहाँ तुम अकेले
अब तक, अकेले ही जाती रही।

 


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