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कविता

यमन

आस्तीक वाजपेयी


हवा की चाल को पहचानकर,
पूर्व की ओर उड़ती गौरैयों का झुंड
एक नया क्षितिज बना रहा है।

कुछ धूल उड़ गई है
अब थमने के लिए

पत्ते थम गए हैं,
पेड़ हिलते हैं हौले हौले

पहाड़ से निकलकर
रात आसमान को खुद में समेट रही है।

काले पानी में मछलियाँ
हिल रही हैं, सोते हुए खुली आँखों से
एक समय का बयाँ करती
हिल रही हैं हौले हौले।

बुढ़ापे को छिपाती आँखें
हँसती हैं।
कौन सुनता है, कोई नहीं
कौन नहीं सुनता, कोई नहीं।

सदियों पहले
अकबर के दरबार में बैठे
सभागण उठते हैं,
तानसेन के अभिवादन में

दरी बिछी, तानपुरे मिले
सूरज थम गया

संगीत की उस एकांतिक प्रतीक्षा में
जो हमारी एकांतिकता को हरा देती है।

सब मौन, सब शांत, सब विचलित
तानपुरे के आगे बैठे बड़े उस्ताद
एक खाली कमरे में वीणा उठाते हैं
निषाद लगाते हैं।

सभा जम गई है।

 


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