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संस्मरण

चौथीराम यादव : देखी तुमरी कासी लोगों!

दिनेश कुशवाह


आज बहत्तर वर्ष की अवस्था में डॉ. चौथीराम यादव की मनीषा बड़े स्तर पर समादृत हुई है। उन्हें 'लोहिया सम्मान' से सम्मानित किया गया है। मेरे जैसे अनेक लोगों के लिए यह सुखद आश्चर्य का विषय है। इसलिए नहीं कि उसकी सम्मान राशि अनेक बड़े पुरस्कारों के बराबर है, बल्कि आश्चर्य इस बात का है कि वे उस काशी में चुपचाप रहते हैं, जहाँ किसी की बरात बिना ढोल-नगाड़े के नहीं निकलती। यह वही काशी है जो अनादि काल से अपने मूलरूप में नहीं बदली। जहाँ बहुत कठिन डगर चलते हुए कबीर और तुलसी का गुजर हुआ। उसी बनारस में काशीनाथ सिंह रहते हैं। 'काशी का अस्सी' रचने के बाद भी वे बनारस का स्वाद घोड़े के मुँह में लगी लोहे की लगाम की तरह जानते हैं। उसी नगर में बहुत सादा, बिना किसी दंद-फंद के बसर करने वाले यादव जी को 'लोहिया सम्मान' मिला है, जिसके लिए भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने लिखा था -

आधी कासी भाट, भंडेरिया, बाम्हन और संन्यासी,
आधी कासी रंडी, मुंडी, राँड़, खानगी, खासी,
लोग निकम्मे, भंगी-गंजड़, लुच्चे, बेविस्वासी,
लोगों देखी तुमरी कासी।

यह कोई बनारसी ही लिख सकता था जिसका कलेजा सवासेर का हो। हिंदी साहित्य और भारतीय समाज पर जब डॉ. चौथीराम यादव लिखते हैं तो लगता है कि उनका कलेजा भी सवासेर का है और वे भारतेंदु के सच्चे वारिस हैं। आप कह सकते हैं कि आप चौथीराम यादव को नहीं जानते। तो क्या हुआ! जान लीजिए। वे विश्वविद्यालयों में विलुप्त होती आचार्य परंपरा के एक विद्वान सद्गुरु हैं। चौथीराम जी ने मुझे पढ़ाया है। मुझे उनसे कभी डर नहीं लगा। जिससे डर न लगे वह बड़ा आदमी कैसा? जिसमें कोई गुरुडम न हो वह गुरु कैसा? बनारस तो गुरुओं-महागुरुओं का शहर है। उन गुरुओं के बीच चौथी गुरु इतने सीधे हैं कि कभी-कभी शिष्य भी उनसे बेअदब हो जाते हैं। अपनी बात शुरू करने के लिए मैं आपको थोड़ी देर के लिए बनारस से उज्जैन ले चलता हूँ।

मानस में रामकथा के वाचकों में सबसे अद्भुत वक्ता काकभुशुंडि हैं। कहते हैं उज्जयिनी में एक बार वे अपने गुरु का अनादर कर बैठे। फलस्वरूप उन्हें शिव का कठोर शाप भोगना पड़ा। चौरासी हजार योनियों की यात्रा करते हुए उन्होंने 'काग के भाग बड़ो सजनी, हरि हाथ सौं ले गयौ माखन रोटी' वाले तन को अपना प्रिय रूप बना लिया। वही काकभुशुंडि अपने गुरु का स्मरण करते हैं कि, 'हे गरुड़! इतने जन्मों के बाद भी मेरे हृदय में एक शूल पीड़ा देता है। मैं अपने कोमल चित्त, शीलवान गुरु का स्वभाव बिसार नहीं पाता।' तुलसी दास के शब्दों में -

एक सूल मोहि बिसर न काऊ।
गुरु कर कोमल सील सुभाऊ।।

आज मुझे गुरुवर चौथीराम यादव का कोमल शील-स्वभाव याद आ रहा है। यह बात मैं बिना किसी संशय के कह सकता हूँ कि मैंने उन जैसा शीलवान अध्यापक दूसरा नहीं देखा। वे रंतिदेव की तरह क्षुधार्त होने पर भी अपने लिए परोसी गई थाली दूसरे को दे सकते हैं। उनमें सामाजिक एवं पारिवारिक संबंधों के निर्वाह की अकूत क्षमता है। उनके व्यक्तित्व में लगभग सब कुछ मृदुल है। छल-बल उनके स्वभाव में है ही नहीं। चाहे विश्वविद्यालय की कक्षाएँ हों या सामाजिक निर्वाहों का रणक्षेत्र, चाहे वे स्वाँग कर रहे हों या भाँग खा रहे हों, अपनी मोहिनी मुस्कान के साथ अनवरत सहज रहते हैं।

'ध्रुवस्वामिनी' में प्रसाद जी ने लिखा है, 'शील परस्पर सम्मान की घोषणा करता है।' यादव जी में परस्पर समादर का आकंठ भाव सदैव विद्यमान रहता है। मुझे भी जब वे पत्र लिखते हैं तो भाई दिनेश जी, नमस्कार! लिखते हैं। जबकि मैं उनका शोध छात्र रहा हूँ और बाकायदा उनके निर्देशन में पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की है।

मित्रो! रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं कि, शील की समस्या बहुत गहन है। शीलवान व्यक्ति के चित्त को निश्चिंतता सुलभ नहीं होती। वह जिसे तजता है, फिर उसे ही मानता है। हमारे पूर्वी उत्तर प्रदेश में एक लोकोक्ति प्रचलित है, 'सिलहा मरद भिखारी, सिलहा नारि छिनारि'। तात्पर्य यह है कि शीलवान व्यक्ति अंततः भिखारी हो जाता है और शीलवान स्त्री छिनाल कही जाती है। इस बात का गलत आशय न निकाला जाय। इसलिए लोक में प्रचलित एक दोहा प्रस्तुत है -

नीक भयो जौबन गयो, तन से गई बलाय
जने-जने का रूठना, मोसों सहा न जाय।

नायिका कहती है - अच्छा हुआ जवानी चली गई। जवानी क्या गई, तन की बला चली गई। किसका-किसका मन रखती! यह जने-जने का रूठना मुझसे सहा नहीं जाता।

कहने का अर्थ है कि शीलवान व्यक्ति का संकोच उसके लिए प्राणघातक है। दुनिया की सारी भाषाओं में अनूठी हमारी हिंदी भाषा में कुछ शब्दों के युग्म बहुत प्रसिद्ध हैं जैसे - 'सोना-सुहागा', 'मणि-कांचन', 'चोली-दामन'। इसी तरह है 'शील-संकोच'। बंधुओं! यही शील-संकोच डॉ. चौथीराम यादव के आभूषण हैं। मैंने उन्हें कभी दूसरा आभूषण पहने नहीं देखा। जहाँ तक एक अच्छे अध्यापक या विद्वान होने की बात है, तो ये बातें तो अन्य लोग भी उनके बारे में कहते हैं। यहाँ तक कि उनके दुश्मन भी। लेकिन वे किसी के बारे में कुछ नहीं कहते। दरअसल चौथीराम जी ऐसे विदेह हैं कि अगर कोई उन्हें पुकारता है तभी सुनते हैं। नहीं तो अपनी दुनिया में मगन रहते हैं।

आज लगभग पंद्रह-बीस वर्षों से उनका पहनावा धोती-कुर्ता है। बैलगाड़ी, रेलगाड़ी, हवाई जहाज। उत्तर हो या दक्षिण, कहीं भी वहीं धोती-कुर्ता। सुंदर सलोने तो वे आज भी हैं, और तब भी थे। लेकिन पहनावा कुछ दूसरा हुआ करता था। मुझे याद है सत्तर और अस्सी के दशकों में वे चौड़ी मोहड़ी का बेलबाटम और लंबी कॉलर का बुशर्ट पहना करते थे। किंचित घुँघराले बाल कंधों तक छाए रहते थे। उनका यह केश विन्यास उनके अध्यापक रहे पद्मनारायण आचार्य से मिलता-जुलता था। जब वे अध्यापन हेतु हमारी कक्षाओं में आते तो कुछ छात्र आपस में बोल पड़ते, 'आ गए प्रियंवद! केशकंबली! गुफा गेह!' लेकिन यादव जी अपनी कक्षा की उपस्थिति देखते, आगे की बेंच से लेकर पीछे की बेंच तक एक नजर डालते। उनके चेहरे पर हम विद्यार्थियों को देखकर 'असाध्य-वीणा' का वही भाव होता, 'कृत-कृत्य हुआ मैं तात! पधारे आप!'

यादव गुरु जी हम लोगों को सूरदास और बिहारी पढ़ाते थे। किसी-किसी वर्ष विशेष प्रश्न पत्र के रूप में उन्हें समकालीन कवियों को भी पढ़ाना पड़ता था। एक बार मैंने 'टाइम टेबुल' पर प्रश्न उठाया। 'गुरु जी आप को कबीर पढ़ाने के लिए क्यों नहीं दिए जाते?' उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, 'वरदान में चुनाव का विकल्प नहीं होता।' अपने पूरे सेवाकाल में शायद ही उन्हें कबीर पढ़ाने को मिले हों। जब वे हिंदी विभाग, काशी हिंदू विश्वविद्यालय के वरिष्ठ आचार्य एवं अध्यक्ष हुए तब की बात मैं नहीं जानता! लेकिन उनकी कोई भी कक्षा कबीर के बिना नहीं शुरू होती थी। चाहे जो पढ़ा रहे हों आगे-पीछे-बीच में कहीं न कहीं, कबीर आ ही जाते। एक बार बिहारी का यह दोहा पढ़ा रहे थे -

कर ले, सूँघि, सराहि के, रहे गहे सब मौन
गंधी गंध गुलाब को, गँवई गाहक कौन।

गुरु जी बिहारी को छोड़कर 'गँवई' पर शुरू हो गए - 'जाहिर है कि रक्त-गोत्र की शुद्धता से लेकर भाषा, साहित्य और कला संस्कृति तक में शुद्धता की तलाश करने वाले वर्चस्ववादी बुद्धिजीवियों की दृष्टि में गाँव का आदमी गँवार और उसकी भाषा गँवारू मानी जाती है। भाषा और साहित्य में आभिजात्य के इसी वर्चस्व का प्रतिरोध करते हुए कबीर ने भाषा के महत्व को रेखांकित किया था - 'संसकीरत है कूपजल, भाषा बहता नीर'; लेकिन अब इसका क्या कीजिएगा कि आलोचक रामचंद्र शुक्ल को कबीर की लोकधर्मी भाषा-दृष्टि रास नहीं आई और उन्होंने संस्कृत काव्यशास्त्रियों का अनुसरण करते हुए रचनाकारों पर 'संस्कृत-बुद्धि', 'संस्कृत-हृदय', 'संस्कृत-वाणी' का अपना आलोचकीय निर्णय लाद दिया। यह एक विडंबना ही है कि हिंदी साहित्य जितना लोकतांत्रिक है, हिंदी आलोचना उतनी ही अलोकतांत्रिक। ऐसा न होता तो मध्यकाल के सबसे विद्रोही और लोकधर्मी कवि कबीर और मीरा आचार्य शुक्ल की आलोचना के हाशिए पर न होते।'

इसी तरह एक बार बिहारी की ही कक्षा थी। गुरुवर दोहों का अर्थ बता रहे थे। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में सबसे अधिक भीड़ यादव जी की कक्षा में होती थी। साथ ही वह सबसे अधिक अनुशासित और संयमित कक्षा भी होती थी। वे जितने मनोयोग से पढ़ाते; विद्यार्थी उतने ही मनोयोग से सुनते और गुनते थे। लेकिन आज अचानक नजारा बदला हुआ था। जब वे एक दोहा पढ़ा रहे थे कि छात्रों में खुसुर-फुसुर होने लगी। यादव जी का ध्यान भंग हो गया। उन्होंने देखा कि कक्षा के कुछ शरारती तत्व सिर नीचे कर मुस्करा रहे हैं। उनकी तरफ देखने के बाद उन्होंने किताब देखी तो माजरा समझ में आ गया। आगे जो दोहा पढ़ाना था वह कुछ इस प्रकार का था कि अगर उसका भाष्य सांकेतिक रूप से भी अश्लील हो जाता तो कक्षा हाथ से बाहर चली जाती। यादव जी उन अध्यापकों में नहीं थे जो यह कहकर अपनी बला टाल देते हैं कि 'इसे आप लोग घर पर खुद पढ़ लीजिएगा'। ऐसे प्रसंगों में उन्हें आँख मूँदकर या खिड़की से बाहर देखते हुए झटपट शब्दार्थ बताकर, झंझट छुड़ाने की आदत भी नहीं थी। लड़के मुस्कराए जा रहे थे। कुहनियों से एक दूसरे को टोहका मार रहे थे कि देखें गुरु अब इसे कैसे पढ़ाते हैं? यादव जी ने बाकायदा गंभीरतापूर्वक उस दोहे का पाठ किया -

अपने तनुके जानिके, यौवन नृपति प्रवीन।
स्तन, मन, नैन, नितंब को, बड़ो इजाफा कीन।।

मैंने देखा, मैंने सुना; गुरु के श्रीमुख से निकला - 'भाइयो! राजा के गद्दी छोड़ने पर युवराज का राज्याभिषेक होता है। वह अपने उन मित्रों की पदवी में इजाफा कर देता है जो अपने संग-साथ से उसका रुतबा बढ़ाते हैं। इसी प्रकार जब नायिका के शरीर पर यौवन नृपति का शासन हुआ तो वे अंग जो उनकी सुंदरता में चार चाँद लगाते थे, उन्होंने उनकी पदवी में बढ़ोत्तरी कर दी। उन्हें उनके मनचाहे स्थान पर सुशोभित कर दिया। कक्षा के मनचले छात्र अवाक हो गए। आज सोचता हूँ कि अगर यह दोहा मुझे पढ़ाना होता तो कैसे पढ़ाता? अपनी आदत के अनुसार मैं उसमें रम जाता। व्याख्या, भावसाम्य और अलंकार के लिए, प्रसाद, शमशेर, निराला, कालिदास को तो उद्धृत करता ही, लगे हाथ दो चार शेर भी जड़ देता।

शोखी पे है शबाब, हया पेशोपश में है,
बचपन निसार होने को, अगले बरस में है।

जो उठे तो ठोकरें मारके, जो चले तो सीना निकालके
एक आप ही तो जवान हैं, कोई दूसरा तो जवाँ नहीं।

जब कोई जवान होता है तो सिर्फ तन ही नहीं बढ़ता, मन भी बढ़ जाता है। स्वास्थ्य सौंदर्य का प्रथम लक्षण है। 'प्राप्ते तु षोडशे वर्षे सूकरी अपि अप्सरायते।' सोलह वर्ष की अवस्था में सूकरी भी अप्सरा लगती है। युवावस्था सौंदर्य का स्वर्णकाल है। जवान और सुंदर दिखना कौन नहीं चाहता! 'मैया! कबहि बढ़ेगी चोटी।' कृष्ण की बालसुलभ उत्सुकता ही नहीं है, दाऊ जैसा दिखने की चाह भी है। जवानी तन और मन की ऐसी बाढ़ है जिसे संसार देखता रह जाता है। हमारे पूर्वांचल में दो लोकगीत बहुत प्रचलित हैं -

'सोरहे बरीसवा के कन्या नीक लागे रामा
मोंछिआ उठतऽ नीकऽ लागे ला जवान
नयनऽ फुल-बगिया में
मारि अइलें सान, नयन फुल-बगिया में।'

                        या

'तूँ ही बाड़ू जग में जवान साँवर गोरिया हो
तूहीं बाड़ू जग में जवान।'

यहाँ 'साँवर गोरिया' का स्थानापन्न कुछ दूसरा नहीं हो सकता। बिहारी कहते हैं कि नायिका के सौंदर्य को प्रकाशित करने वाले सारे अंगों की शोभा यौवन ने आते ही बढ़ा दी। आँखों के कोए बड़े हो गए, शरीर में वह यौवन फूट पड़ा जो शरीर रूपी लता का स्वाभाविक श्रृंगार है। कालिदास कहते हैं कि, 'यौवन; मदिरा के बिना ही शरीर को मतवाला बना देता है।' वयःसंधि एवं यौवन के वर्णन में विद्यापति, कालिदास के पासंग भी नहीं है। कभी कालिदास का 'कुमार संभव' पढ़िए -

अन्योन्यमुत्पीडयदुत्पलाक्ष्याः स्तनद्धयं पांडु तथा प्रवृद्धम्।
मध्ये यथा श्यामुखस्य तस्य, मृणालसुत्रान्तरमप्यलभ्यम्।।

कालिदास कह रहे हैं कि, 'उस कमलनेत्री युवा पार्वती के गौर वर्ण के पयोधर विकसित होकर आपस में ऐसे सट गए कि कुचाग्रों के बीच इतना स्थान भी नहीं बचा कि कमल नाल का एक सूत भी उसमें समा सके।' संस्कृत कवियों के यहाँ जीवन पर किसी प्रकार का पर्दा नहीं है। जो जीवन में है, सहज है, स्वीकार है। 'कविः स्वयंभू परभू मनीषी'। जब कवि 'स्वयंभु' और 'परभू' मनीषी है तो उसे अभिव्यक्ति से कौन रोक सकता है। दूसरे मनीषी लिखते हैं -

गदितुमितिगतेद्वै, चक्षुषी कर्णमूलं
तरुणि! तव कुचाभ्यां वर्तमालोकयावः
तव यदि विधियोगात् दुर्गमार्गे स्खलन्त्या
मटदिति तनुमध्यं भज्यते नौ न दोषः।।

यहाँ कवि इस बात का वर्णन करता है कि नायिका विशालाक्षी है। उसकी आँखें इतनी बड़ी हैं कि उनके कोर कानों को छू रहे हैं। पृथुल नितंबों और विशाल वक्षों वाली नायिका की कमर पतली है। लेकिन कवि का कौशल देखिए - कहता है, 'यह कहने के लिए दोनों आँखें कानों के पास गईं कि हे तरुणी! तुम्हारे दोनो विशाल वक्ष हमें रास्ता नहीं देखने देते। विधिसंयोग से कभी तुम यदि ऊँचे मार्ग से फिसलकर गिरी तो तुम्हारी यह कमर मचक कर टूट जाएगी। तब हम दोनों को दोष मत देना।''

स्तन मातृत्व के प्रतीक हैं तो स्त्रीत्व की पहचान भी। स्त्रियाँ भी इसे जानती हैं और प्रकट भी करती हैं। कवि स्तनों पर कविताएँ लिखते हैं। फिल्मकार फिल्में बनाते हैं। चित्रकार चित्र बनाते हैं। मूर्तिकार उन्हें तरह-तरह से गढ़ते हैं। कोणार्क और खजुराहो स्तनों के मंदिर हैं। लगता है मनुष्य के प्राणों में यह प्यास बहुत गहरे बसी है। आदि। आदि।

मित्रो! एक दोहे में पीरियड खत्म हो जाता। आप कहेंगे कि 'जनाबे आली! आपका क्या होगा?' पर मैं अध्यापन की अपनी शैली से आपको परिचित कराने के लिए यह सब नहीं कह रहा हूँ बल्कि उस असाधारण घटना का जिक्र करना चाहता हूँ जब एक बार हमारी कक्षा के कुछ छात्रों से यादव जी ऐसे ही 'कुठाँव' घिर गए थे। हुआ यह कि उस दिन कबीर के विशेषज्ञ, शब्दशिल्पी, रैदास के अध्येता, समस्त श्रृंगार शतकों के उपासक आचार्य शुकदेव सिंह ने हम लोगों को 'राग गौड़ी' में लिखा कबीर का यह प्रसिद्ध पद पढ़ाया था। अद्भुत थी डॉ. शुकदेव सिंह की वाग्मिता।

दुलहनी गावहु मंगलचार,
हम घरि आए हो राजा राम भरतार।
तन रत करि मैं मन रत करिहूँ, पंचतत्त बराती।
रामदेव मोरैं पाँहुनैं आएँ मैं जोबन मैं माती।
... ... ... ...
कहै कबीर हम ब्याहि चले हैं, पुरुष एक अबिनासी।

शुकदेव जी ने बताया कि कबीर उस अविनाशी पुरुष से अपने मिलन का उत्सव मना रहे हैं। वे कहते हैं कि आज हमारे घर, हमारे भर्तार राजा राम आए हैं। वे हमारे राजा हैं, मैं उनकी रानी हूँ। ये रामदेव मेरे पाहुन हैं। वे मेरा दूल्हा बनकर आए हैं। उनके साथ पंचतत्व बराती बनकर आए हैं। मैं अपने यौवन से मतवाली हो रही हूँ। पहले मैं उनके साथ तनरति करूँगी और फिर मनरति करूँगी। आचार्य ने हँसते हुए कहा कि, 'हम हिंदुओं में ब्राह्मण विवाह ही श्रेष्ठ है। सुहागरात के दिन वर-कन्या एक-दूसरे से सर्वथा अपरिचित होते हैं। उनकी शुरुआत तनरति यानी शारीरिक संपर्क से होती है, फिर धीरे-धीरे कालांतर में उनके मन का आपसी मेल बैठता है। विवाह तो तन मिलने के लिए ही किया जाता है। उसका निमित्त संतानोत्पत्ति है। मन मिले या न मिले, बच्चे होते रहते हैं। पश्चिम में पहले मन मिलता है, फिर तन मिलता है। भारत में पहले तन से तन मिलता है। मन मिले इसकी कोई गारंटी नहीं।' किसी छात्र ने बीच में पूछा, 'सर! 'रति' माने 'लगना' होता है नऽ?' शुकदेव जी ने पहले उसे टालना चाहा। वे अपने दाहिने कान के पीछे दाहिनी हथेली ले गए। आँखे किंचित मूँद लिया और ग़ालिब का एक मिसरा बोल पड़े - 'सुनता नहीं हूँ कुछ भी मुकर्रर कहे बगैर।' उसी लड़के ने फिर कहा - 'क्या मतलब सर?'

'अरे भाई! 'उच्चैश्रवा' हूँ; ऊँचा सुनता हूँ। दुबारा बोलिए।' अर्द्धबहरे शुकदेव जी अपने को 'उच्चैश्रवा' कहकर घोड़े की याद दिलाते थे। उनका आशय अपने अंदर की अश्वशक्ति (हार्स पॉवर) से होता था। पीछे से कुछ लड़के बोले, 'लगना, गुरु जी! 'लगना'। रति माने 'लगना' होता है नऽ?''

'अब बनारसी में 'लगना' कहिए या संस्कृत में रतिक्रिया। यह आप पर निर्भर है।' कुछ लोग बेशर्मी से हँस पड़े और कुछ लोगों ने सिर झुका लिया। शुकदेव जी कक्षा समाप्त कर जब चले गए तो कुछ मेधावी और कुछ शरारती विद्यार्थियों ने तय किया कि आज यही सवाल यादव जी से उनके चेंबर में चलकर पूछते हैं। मैंने कहा - अगर यही प्रश्न अपने विभागाध्यक्ष प्रो. विजयपाल सिंह से पूछा जाय तो वे क्या कहेंगे? मेरे मित्र, सहपाठी आज के प्रसिद्ध पत्रकार और मीडिया विशेषज्ञ हेमंत शर्मा, बोलते भए -

विजयपाल सिंह बोलेंगे -

'तुम लोगों में किसका-किसका विवाह हुआ है? चलो हाथ उठाओ। अच्छा तो जिन लोगों का विवाह हुआ है उन्हें 'रति' का माने बताने की जरूरत नहीं हैं। वे सब जानते हैं। और जिनका विवाह नहीं हुआ है उन्हें बताने का कोई मतलब नहीं है। चलो भागो यहाँ से। अरे रुको। सच-सच बताओ तुम्हें त्रिभुवन, शिवप्रसाद सिंह या काशी ने बरगला कर तो मेरे पास नहीं भेजा।'

मित्रो! कुछ लोग कहते हैं कि विजयपाल सिंह, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, हिंदी विभाग के धूमकेतु थे। मदन मोहन मालवीय के शिक्षा उद्यान में स्वच्छंद विचरते हुए उन्होंने सारे जीवन मूल्यों को चर लिया। बहुत सारी किंवदंतियाँ हैं आचार्य विजयपाल सिंह के बारे में। एक बार वे दिल्ली गए। उन दिनों 'दिनमान' के संपादक हिंदी के सुपरिचित कवि रघुवीर सहाय थे। उन्होंने उनसे कहा, 'सहाय तुम लोगों का साथी है कोई मुक्तिबोध! सुनते हैं गरीबी में मर रहा है। बीड़ी पीता है। मैंने उसकी कविताएँ कोर्स में लगा दी हैं। कहो - मुझसे संपर्क करे। उसे अच्छी रायल्टी दिलवा दूँगा।' रघुबीर सहाय विचलित हो गए। बाद में उन्होंने संपादकीय में लिखा कि देश के सबसे बड़े विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष को नहीं मालूम कि गजानन माधव मुक्तिबोध को मरे आज कई वर्ष हो गए।

लेकिन यह एक ऐतिहासिक सचाई है कि अगर प्रो. विजयपाल सिंह न होते तो डॉ. चौथीराम यादव हिंदी विभाग में कभी अध्यापक न हो पाते। यह यश, प्रो. सिंह की धरोहर है। वे मार्क्सवाद या अस्तित्ववाद नहीं जानते थे तो जातिवाद भी नहीं जानते थे। डॉ. यादव से पहले पिछड़े वर्ग का कोई अध्यापक हिंदी विभाग काशी हिंदू विश्वविद्यालय में नहीं था; न आज उनके अवकाश प्राप्त करने के दसों वर्ष बाद ही है। मुख्तसर में कहें तो द्रोणाचार्यों की अपनी दुरभिसंधियाँ होती हैं।

सर से हतौं, श्राप से जारौं
कहें द्रोण मैं कैसे हारौं?

खैर! हम सब यादव जी के कक्ष में पहुँचे। हिंदी विभाग के दूसरे तल पर एक छोटा सा कमरा। अप्रैल का महीना। मिट्टी की एक अधभरी सुराही। और चूँचूँ करता अधमरा सा एक सिलिंग फैन। डॉ. चौथीराम यादव धूमिल का कविता संग्रह 'संसद से सड़क तक' पढ़ रहे थे। यह समय उनका 'लेजर पीरियड' था। हम लोगों को देखकर बोले -

'आइए भई! आप लोग!! इस समय यहाँ!' फिर वही चिरपरिचित मुस्कान जो उनकी पहचान है।

'कहिए कैसे आना हुआ?'

'गुरु जी! आपसे एक सवाल पूछना है? शायद उमेश प्रसाद सिंह थे या गोपाल सिंह कह नहीं सकता!'

'पूछिए!'

'सर! 'रति' माने क्या होता है?'

'यह सवाल आया कहाँ से?'

'सर! शुकदेव जी आज कबीर का पद 'दुलहिन गावहु मंगलचार' पढ़ा रहे थे। वहीं से 'रति', 'रति' रटते ये लोग आपके पास आए हैं।' मैंने कहा।

यादव जी गंभीर हो गए। बोले - आप लोग नोट बुक लाए हैं क्या? चलिए लिखिए। एक 'शब्दार्थ' के लिए नोट बुक! सबकी शरारत न जाने कहाँ गुम हो गई? और सबने चुपके से कापी-कलम निकाल लिया। यादव जी ने 'सड़क से संसद तक' एक तरफ रख दिया और बोले - लिखिए -

'कबीर के यहाँ सुरत शब्द बार-बार आता है। कहीं सुरत और कहीं सुरति। एक तरह से कह सकते हैं कि यह शब्द उन्हें बहुत प्रिय है। कौन कहे यह शब्द उन्हें हठयोग से प्राप्त हुआ या जीवन से? पर वह पूरी तरह यह 'रति' नहीं है। साहित्य का हर विद्यार्थी जानता है कि 'रति' श्रृंगार रस का स्थायी भाव है। श्रृंगार रस में 'रति' नाम के स्थायी भाव के उदय होने पर कामदेव चित्त में जो प्रथम विक्षोभ पैदा करता है उसे 'भाव' कहते हैं। तुलसी के यहाँ राम जब सीता को जनक की पुष्पवाटिका में पहली बार देखते हैं, तो लक्ष्मण से कहते हैं -

तात जनक तनया यह सोई।
धनुष यज्ञ जेहि कारन होई।।
जासु बिलोकि अलौकिक सोभा।
सहज पुनीत मोर मन क्षोभा।।

यही प्रथम विक्षोभ 'भाव' कहलाता है और चित्तस्थ भावों के अवबोधक को 'अनुभाव' कहते हैं। तरुणाई अवस्था में सर्वप्रथम 'अनुभाव' पैदा होता है। कामदेव भीतर ही भीतर चित्त को मथा करता है। वही कंदर्प-क्षोभ जब संकेतों, इंगितों, चेष्टाओं और कटाक्षों द्वारा बहिर्मुख होता है तब उसे 'भाव' कहते हैं। 'रति' से जुड़ा एक दूसरा शब्द है 'राग'। राग समय या नियम का पाबंद नहीं होता। संभोग से पूर्व 'रति' की पाँचवीं अवस्था का नाम 'राग' है। और संभोग की प्रौढ़ इच्छा का नाम 'रति'। धीरे-धीरे 'रति' जब दृढ़ हो जाती है तो वह प्रेम कहलाने लगती है। जैसे सूर्य अपनी तपन से नवनीत को पिघला देता है उसी प्रकार जब प्रेम चित्त को पिघला देता है तो 'स्नेह' बन जाता है। बढ़ता हुआ स्नेह 'मान' बनता है और मान बढ़कर 'प्रणय' बन जाता है। और प्रणय जब बुद्धमूल हो जाता है तब वह 'राग' बन जाता है। यही 'राग' जब अपनी चरम अवस्था को प्राप्त होता है तब वह 'अनुराग' कहा जाने लगता है। रागावस्था में स्त्री-पुरुष एक दूसरे को शक्कर के समान मीठे लगते हैं।'

गुरु ने उस परिहास सत्र को ज्ञान क्षेत्र के शास्त्र-विमर्श में बदल दिया। उस समय हममें से कोई भी शास्त्रज्ञ नहीं था। मुझे भी बहुत बाद में पता चला कि उस दिन गुरुदेव काव्यशास्त्र और 'कामसूत्र' दोनो का आधार लेकर बोल रहे थे। अब हम लोगों को गुरु को छेड़ना भारी पड़ रहा था। वहाँ उपस्थित सारे लोग कमोबेश राग-रति से अपरिचित थे। लगभग सभी प्रेम-वंचित और अविवाहित। हम लोगों में अपनी गायकी के लिए प्रसिद्ध मित्र अरुण मिश्र बोले; लगता है इसीलिए बिहारी ने कहा है -

या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहि कोय।
ज्यौं-ज्यौं डूबे श्याम रंग, त्यौं-त्यौं उज्ज्वल होय।।

लेकिन 'रति' ने अभी पीछा नहीं छोड़ा था। शोभनाथ गुप्त बोले - नहीं गुरू! सही जगह सही उद्धरण दिया करिए। बात यह है कि -

तंत्रीनाद, कवित्त रस, सरस-राग, रति-रंग
अनबूड़े बूड़े, तिरे जे बूड़े सब अंग।।

तभी उमेश प्रसाद सिंह तत्काल बोल पड़े। आप लोग तो एक घंटे से एक ही राग अलाप रहे हैं। रति का एक अर्थ तुलसीदास के यहाँ भी है।

'धर्म न अर्थ न कामरुचि, गति न चहों निर्वान।
जनम-जनम रति राम पद, यह वरदान न आन।।

सारे लोग उमेश जी से परिहास के मूड में आ गए। हेमंत, अरुण और शोमनाथ की तिकड़ी बोल पड़ी, 'धन्य हो महात्मा। रत्नावली का पता नहीं और राम से जन्म-जन्मांतरों का संबंध जोड़ने चले हैं। ऐसे ही रहे तो एक दिन 'अपना हाथ जगनाथ' पर आ जाएँगे।

मैं कहाँ चुप रहने वाला था। दिनकर की 'उर्वशी' हाल-फिलहाल पढ़ी थी। और उसकी बहुत सारी पंक्तियाँ मुझे कंठस्थ हो गई थीं। लेकिन डर के मारे उन्हें कहीं उद्धृत नहीं करता था। उन दिनों के मेरे सर्वाधिक प्रिय गुरु और कॉमरेड डॉ. रामनारायण शुक्ल ने एक दिन मुझे उर्वशी का नाम लेने पर डाँट दिया था।

'अरे जी!! यह तुम्हारी नासमझी है या राजनीतिक भटकाव। कहीं तुम विचारधारा से 'डेबिएट' तो नहीं कर रहे? भ्रष्ट तो नहीं हो रहे! 'उर्वशी' के रूप में दिनकर ने 'रामनामी' में लपटेकर 'कोकशास्त्र' लिखा है।' मेरे उत्साह पर पानी फिर गया। एकाध बार किसी से वात्स्यायन के 'कामसूत्र' का नाम तो सुना था पर ग्रंथ नहीं देखा था। जबकि 'कोकशास्त्र' के बारे में बार-बार सुना था और वह रेलवे स्टेशनों, बस स्टेशनों और फुटपाथों पर पीली पन्नी में लपेटकर अक्कर बिकता रहता था। आज 'रति', 'राग', 'प्रणय', 'प्रेम', 'स्नेह', 'अनुराग' 'स्त्री-पुरुष', 'शक्कर की तरह मीठे' आदि शब्दों ने मुझे उर्वशी की उन पंक्तियों को बोलने के लिए प्रेरित कर दिया-

इसमें क्या संदेह, प्रीति जब प्रथम-प्रथम जगती है
दुर्लभ स्वप्न समान रम्य, नारी नर को लगती है।

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वाह गुरु! वाह वाह!! क्या बात कही है? कहते हुए सब लोग उठ खड़े हुए। और यादव जी को प्रणाम निवेदित कर चल पड़े।

कभी-कभी कक्षा-अध्यापन में ऐसे घटना क्रम आ जाते हैं। यादव जी विशुद्ध अध्यापक हैं। उनके यहाँ ऐसे घटनाक्रमों का आना स्वाभाविक था। और सच तो ये है कि, जहाँ हम हैं वहाँ दारो-रसन की आजमाइश है।' छात्रों और अध्यापकों में यह आजमाइश अनवरत चलती रहती है। कक्षा का कमजोर से कमजोर या शरारती से शरारती छात्र जान जाता है कि 'सर' कितने पानी में हैं? जैसे नया से नया घोड़ा जान जाता है कि सवार अनाड़ी है या खिलाड़ी है। अध्यापक छात्र का परीक्षक होता है। पर छात्र अपने अध्यापक के सबसे विश्वसनीय परीक्षक होते हैं। क्लास 'इंगेज' करना और बात है और क्लास 'टीच' करना और बात। दूसरे शब्दों में कहूँ तो 'क्लास लेना' और बात है और 'क्लास पढ़ाना' और बात। अगर प्रो. चौथीराम यादव की छवि देश-देशांतर में विशुद्ध और विद्वान अध्यापक की न होती तो मैं आपसे कक्षा-अध्यापन पर इतनी बातें न करता। मेरे गुरु काशीनाथ सिंह ने मेरे अध्यापक जीवन के प्रभातकाल में मुझे दीक्षित किया था। 'क्लास की पूरी तैयारी करके ही कक्षा में जाना चाहिए। जिस दिन तैयारी न हो 'सी.एल.' ले लीजिएगा।' अध्यापक जीवन का यह 'एथिक्स' मुझे भूलता नहीं। सच यह है कि आत्मविश्वास से भरा अध्यापक कक्षा में अपने को शहंशाह से कम नहीं समझता। फिर भी कभी-कभी अत्यंत अशोभन घट जाता है। एक बार तो यादव जी की कक्षा में एक छात्र और छात्रा में ऐसा विवाद हुआ कि उसका उल्लेख सभ्य भाषा में नहीं किया जा सकता। ऐसे में शास्त्र फिसड्डी सिद्ध होता है। धैर्य चूक जाता है। बुद्धि जवाब दे जाती है। परंतु धन्य हैं यादव जी, उसके बाद भी कक्षा लेकर ही गए।

मित्रों! इस घटना का दशांश ही सही; पर अपने साथ घटी एक घटना का उल्लेख अगर मैं कर दूँ तो आप समझ जाएँगे कि वह घटना कितनी बड़ी रही होगा। सन 1996 की बात है। मैं रीवा विश्वविद्यालय में पुराना नहीं पड़ा था। विभागाध्यक्ष, प्रसिद्ध समालोचक प्रो. कमला प्रसाद, उपाचार्य, प्रसिद्ध कथाकार डॉ. रमाकांत श्रीवास्तव तथा प्राध्यापक कवि दिनेश कुशवाह की तिकड़ी पूरे विश्वविद्यालय में अपने निपुण अध्यापन के लिए मशहूर थी। एक दिन की बात है, मैं 'कामायनी' पढ़ा रहा था। 'कामायनी' का इड़ा सर्ग। जो लोग कामायनी से परिचित हैं वे जानते हैं कि 'श्रद्धा' उसका 'भाव' सर्ग है तो 'इड़ा' उसका 'बुद्धि' सर्ग। श्रद्धा का परित्याग कर मनु अनेक स्थानों में घूमते रहे। उजड़े हुए 'सारस्वत प्रदेश' को देखकर उन्हें बहुत पीड़ा हुई। विजयी इंद्र के नगर की ऐसी दुर्दशा? उसी समय उन्हें काम की वाणी सुनाई दी। 'मनु अपने दुखों के लिए तुम स्वयं जिम्मेदार हो। अपने दुख के लिए अपना दोष नहीं देखते, दूसरों को दोषी ठहराते हो।' काम की वाणी सुनकर मनु उदास हो गए। इतने में भगवान भुवन भास्कर उदित हुए। प्राची में मधुर आलोक के फैलते ही एक अपूर्व सुंदर बाला प्रकट हुई। वह सुंदर है, बुद्धिमती है। उसके पास सृष्टि का सकल ज्ञान-विज्ञान संकलित है। वह अनुराग से आरक्त और वैराग्य से धवल है। वह पुनर्निर्माण के लिए मनु का आह्वान करती है। वह वैश्वानर ज्वाला सी है किंतु शीतल सौमनस्य बिखराती है - मैंने पद की व्याख्या के लिए पाठ शुरू किया -

प्राची में फैला मधुर राग!
जिसके मंडल में एक कमल खिल उठा सुनहला भर पराग।

कि पीछे से एक छात्र बोल पड़ा, 'क्या सर, चाची में फैला मधुर राग?'

मैंने उसे अनसुना कर फिर से पाठ दुहराया,
'प्राची में फैला मधुर राग।

जिसके मंडल में एक कमल खिल उठा सुनहला भर पराग।

न जाने क्या बात थी, वही फिर बोल पड़ा, 'क्या सर! 'चाची' में फैला मधुर राग?' आज सोचता हूँ हो सकता है वह 'प्राची' शब्द से अनभिज्ञ रहा हो। क्योंकि उसके हाथ में किताब नहीं थी। मैंने उसकी तरफ देखा और अचानक मेरे मुँह से निकल गया - 'नहीं तेरी दीदी में फैला मधुर राग।' आगे जो पंचायत हुई सो हुई, पर उस समय तत्क्षण कक्षा भंग हो गई।

मित्रो! कथाकार देवेंद्र के शब्दों में वह हिंदी विभाग, काशी हिंदू विश्वविद्यालय का स्वर्णकाल था। अरविंद चतुर्वेद, सियाराम यादव, श्रीकांत पांडेय, ओमप्रकाश द्विवेदी, जलेश्वर, देवेंद्र और प्रेमिला आदि की एक टोली थी। उसके अगुवा विभाग के प्रखर जनवादी डॉ. रामनारायण शुक्ल थे। हम सारे लोग 'राष्ट्रीय जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा' के बैनर तले काम करते थे। यह हिंदी विभाग के चार-पाँच बैचों के कवि-कथाकार, रंगकर्मी, समीक्षक तथा कुशाग्र किस्म के मिले जुले छात्रों का दस्ता था। यूँ तो संगठन में काम करने वाले छात्रों की संख्या लगभग पचास थी जो कला संकाय से लेकर सामाजिक विज्ञान, मेडिकल, विधि और प्रौद्योगिकी संस्थान के छात्रों से मिलकर बना था। इसका एक राजनीतिक संगठन भी था। जिसे 'प्रोग्रेसिव स्टूडेंट आर्गेनाइजेशन, संक्षेप में पी.एस.ओ. के नाम से जाना जाता था। बी.एच.यू. में मैं पी.एस.ओ. का संयोजक था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में रामजी राय और जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में उर्मिलेश। छात्र संगठन में सुनील पांडेय, रमेश चंद्र राय, सुभाष गाताड़े, सत्यु सांरगी, अवधेश राय, राम अवतार राय, राजेंद्र मिश्र, अमरेंद्र कुमार राय, राजेंद्र प्रसाद सिंह, डॉ. बलिराम, जय प्रकाश गौड़ आदि साथी प्रमुख रूप से नेतृत्व सँभाले हुए थे। यह 'पी.एस.ओ.' 'सोसाइटी फॉर सोशल वर्क' और रिडिकल यूथ' के छात्रों का एक संयुक्त मोर्चा था। हम लोगों में डॉ. बलिराम तीन बार से लोक सभा के सांसद हैं पर अन्य साथी, लेखक, पत्रकार, वकील सामाजिक कार्यकर्ता, विचारक और प्राध्यापक की कोटियों में बँट गए। हमारे जो साथी 'अभियान नाट्य मंच' के सदस्य थे वे लंका, शहर और विश्वविद्यालय की सड़कों पर नुक्कड़ नाटक करते। जो साथी 'जागरण विचार मंच' के सदस्य थे वे विचार गोष्ठियाँ और अध्ययन मंडल (स्टडी सर्किल) का संचालन करते। पी.एस.ओ., 'जागरण विचार मंच' और 'अभियान नाट्य मंच' ने 'राष्ट्रीय जनवादी सांस्कृतिक मोर्चे' के बैनर तले प्रेमचंद्र के गाँव लमही में पहली बार 'प्रेमचंद्र मेला' का वृहद आयोजन किया। यह आयोजन तीन दिन का था। इसमें नेतृत्वकारी भूमिका डॉ. लालबहादुर वर्मा की थी जिन्हें आज सारा देश प्रसिद्ध इतिहासकार और 'इतिहास बोध' के संपादक के रूप में जानता है। दूसरे डॉ. शमशुल इस्लाम थे जो दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक थे। उनकी पत्नी नीलिमा 'निशांत नाट्य मंच' की प्रसिद्ध रंगकर्मी थीं। आयोजन में देश के विभिन्न प्रांतों के बुद्धिजीवी, लेखक, रंगकर्मी और सामाजिक तथा राजनीतिक कार्यकर्ता आए हुए थे। प्रमुख रूप से प्रसिद्ध रंगकर्मी गुरुशरण सिंह पंजाब से, विद्रोही कवि ज्वालामुखी आंध्र से, स्वामी अग्निवेश हरियाणा से, प्रो. लाजपत राय दिल्ली से एवं डॉ. धीरेंद्र शर्मा जे.एन.यू. से आए थे। यहाँ बी.एच.यू. और गोरखपुर विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं का हुजूम था। इनमें प्रसिद्ध कवयित्री कात्यायिनी भी थीं। कॉमरेड मंगल सिंह, शशिप्रकाश आदि साथियों को राजनीतिक प्रस्तावों का मसौदा तैयार करना था। लगभग तीन सौ लोगों के बीच खुले अधिवेशन में डॉ. रामनारायण शुक्ल, 'राष्ट्रीय जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा' के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गए। विश्वविद्यालय की सरजमी पर लगभग चार-पाँच वर्षों तक इस विचारधारा की सरगर्मी छाई रही। विश्वविद्यालय की फिजा में यह बात तैर रही थी कि यह बुद्धिजीवी छात्रों का संगठन है। कालांतर में पी.एस.ओ. के बदले रूप 'आइसा' से आनंद प्रधान बी.एच.यू. छात्रसंघ के अध्यक्ष चुने गए थे, जो आज प्रसिद्ध आर्थिक-राजनीतिक विचारक हैं और 'आइसा' जे.एन.यू. की पहचान है।

उन दिनों काशी हिंदू विश्वविद्यालय के माननीय कुलपति प्रो. इकबाल नारायण थे। पहले वे जयपुर विश्वविद्यालय के कुलपति थे। वहाँ विश्वविद्यालय कर्मचारियों के आंदोलन के समर्थन और राज्य सरकार की हठधर्मिता के विरोध में उन्होंने कुलपति के पद से त्यागपत्र दे दिया था। अपने प्रगतिशील और वामपंथी विचारों के कारण विश्वविद्यालय में उनका बहुत आदर था। छात्र नेताओं में, मेरे प्रति उनके मन में विशेष लगाव था। मेरे कहने पर उन्होंने कुछ विभागों में कुछ तेजस्वी लोगों को प्राध्यापक नियुक्त कर दिया। फिर तो बहुत सारे कैरियरिस्ट लोग भी संगठन से जुड़ने लगे थे। हमारा नेतृत्व इसे समझ रहा था। उसने मुझे हतोत्साहित किया और मैं भूमिगत जैसा हो गया।

डॉ. चौथीराम यादव सी.पी.आई. के कार्ड होल्डर थे। उन्होंने पार्टी की असहमति के बावजूद डॉ. रामनारायण शुक्ल को बी.एच.यू. अध्यापक संघ के महासचिव पद पर समर्थन देना तय कराया। कामरेड दीपक मलिक, काशीनाथ सिंह, मनोरंजन झा, एम.पी. सिंह आदि को साधकर चौथीराम जी ने चुनाव संचालन किया और डॉ. राम नारायण शुक्ल अध्यापक संघ, काशी हिंदू विश्वविद्यालय के महासचिव चुन लिए गए। कालांतर में वे अध्यापक संघ के अध्यक्ष भी चुने गए लेकिन इस बार की जीत में बी.एच.यू. के जातीय समीकरणों का हाथ अधिक था। कुछ ही दिनों बाद विश्वविद्यालय में खुसुर-पुसुर शुरू हो गई कि डॉ. शुक्ल अवसरवादी जाति की राजनीति करने लगे हैं। डॉ. चौथीराम यादव उनसे वरिष्ठता क्रम में आगे थे। महासचिव पद के समय रीडर पद पर और बाद में प्रोफेसर पद अपना प्राप्य पाने के लिए उन्हें बहुत मशक्कत करनी पड़ी। यहाँ तक कि रामनारायण शुक्ल से सीधी लड़ाई लड़नी पड़ी। अगर काशीनाथ सिंह न होते तो वे बेहद अकेले पड़ जाते। परंतु व्यवहार-शील और मैत्री की अपार संपदा उनके पास थी। वे अपना लक्ष्य प्राप्त करने में पिछड़े नहीं। रीडर, प्रोफेसर की क्रमिक सीढ़ियाँ चढ़ते हुए वे हिंदी विभाग के अध्यक्ष की आसंदी पर भी विराजमान हुए जिसकी शोभा कभी आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने बढ़ाई थी।

उस्ताद की उस्तादी पर जेरे-बहस उनके विचारक और लेखक रूप की अवहेलना नहीं की जा सकती। इन दिनों तो उनकी वाग्मिता लहलहा रही है। इधर उनके लेखों के संकलन की कुछ पुस्तकें आ गई हैं। 'हजारी प्रसाद द्विवेदी समग्र पुनरावलोकन' आचार्य द्विवेदी पर एक आत्मीय और महत्वपूर्ण पुस्तक है। 'लोक धर्मी साहित्य की दूसरी धारा' पुस्तक उनके चिंतन और अध्ययन को पाठकों के समक्ष रखती है। मैं उनके दो लेखों की चर्चा आपसे जरूर करना चाहूँगा। पहला 'दलित चिंतन की प्रतिपरंपरा और कबीर' तथा दूसरा 'अवतारवाद का समाज शास्त्र और लोकधर्म'। यह निबंध तो साहित्य में मील का पत्थर सिद्ध हुआ। मुझे याद है यह लेख 'तद्भव' में छपा था। इस पर संपादकीय टिप्पणी करते हुए संपादक अखिलेश ने लिखा था, 'चौथीराम यादव कम लिखते हैं किंतु उनके तर्क, विश्लेषण, व्याख्याएँ विचार इतने अचूक और निडर हैं कि उनके लिखे हुए पर पूरा ध्यान जाता है।'

वरेण्य आलोचक नामवर सिंह लिखते हैं, 'आप अपने को शास्त्र-वंचित न समझिए। शास्त्र वंचित तो वे हैं जो शास्त्र वंचक हैं - आज भी। आप तो लोक रंजित हैं और नए शास्त्र से सर्वथा रक्षित भी। दस्तावेजी प्रतिक्रियावादियों को उनकी अपनी हैसियत का एहसास कराने के लिए जरूरी है कि आप लिखते रहें।'

प्रख्यात कथाकार काशीनाथ सिंह लिखते हैं, ''चौथीराम जी से मेरा पिछले चालीस-पैंतालिस साल का संग-साथ रहा है। मैं उनके समीक्षक के प्रौढ़ से प्रौढ़तर होते जाने का साक्षी रहा हूँ। मैंने लिखने से पूर्व उनकी तैयारियाँ और बेचैनियाँ देखी हैं। वे तब तक हाथ में कलम नहीं लेते, जब तक उन्हें अपनी मान्याताओं और विचारों की पुष्टि के लिए ऐसे साक्ष्य नहीं मिल जाते जो तर्क संगत और विश्वसनीय हों। यही कारण है कि उन्होंने कम लिखा है लेकिन जो लिखा है वह झकझोरने और बेचैन करने के साथ ही विस्मय में डालता है।''

हे! हिंदी साहित्य की दुनिया के रायल लोगो! कुछ ऐसे ही हैं हाशिए के लोगों के पक्षकार लेखक चौथीराम।

अभी आपने मेरे गुरु का यह सारगर्भित आप्त कथन सुना कि कैसे लिखते हैं डॉ. चौथीराम यादव। जैसे वे लिखते हैं वैसे ही खरामा-खरामा चलते भी हैं। अभी आपने दोनों मित्रों का आपसी समादर देखा, अब परिहास भी देख लीजिए।

एक बार की बात है। काशीनाथ जी, यादव जी और मैं विश्वविद्यालय से पैदल अस्सी जा रहे थे। यह लगभग रोज शाम की तय दैनिक चर्या थी। न जाने कहाँ से 'पृथ्वीराज रासो' की चर्चा शुरू हुई तो यादव जी ने 'शशिव्रता विवाह' के संदर्भ में काशीनाथ जी से कोई प्रश्न पूछा। बातों की रौ में हम कब 'मुमुक्षु भवन' पहुँच गए पता ही नहीं चला। एकाएक मेरा ध्यान गया कि यादव जी एक फर्लांग पीछे हो गए हैं। मैं ठमक गया। काशीनाथ जी ने पूछा -

'क्या हुआ?

'चौथीराम जी पीछे छूट गए। थोड़ा रुक जाते हैं।'

काशीनाथ जी ने देखा, यादव जी मत्तगयंद की तरह परम सुखपूर्वक चले आ रहे हैं। उन्हें न कोई जल्दी है, न चिंता, न प्रश्नाकुलता।

उन्होंने मुझसे कहा 'चलिए'।

मैंने कहा -

'अरे रुक जाइए। उन्हें भी साथ लेकर चलते हैं।'

'तो क्या उन बातों को भी दुहराऊँ जिन्हें बोल चुका। मैं तो यह समझ रहा था कि चौथीराम सुन रहे हैं।'

मैंने परिहास किया, 'बड़े आदमी की चाल तो ऐसी ही होती है।'

'अरे छोड़िए। चौथीराम जी ने मेरी चाल बिगाड़ दी पर अपनी नहीं सुधारी।'

और अंत में अभी हाल फिलहाल।

मैंने यादव जी को फोन किया। 'सर! जून 'पाखी' में मेरी लंबी कविता 'उजाले में आजानुबाहु' छपी है। आप पढ़कर अपनी राय दीजिएगा।'

'दिनेश जी, पाखी मेरे पास नहीं आती।'

मेरे मुँह से निकल गया 'आप के आवास से दो हाथ की दूरी पर, लंका पर मात्र पच्चीस रुपये में मिल जाएगी।' चौथीराम जी ने कहा, 'अच्छा देखता हूँ।'

आज तक वह शुभ दिन नहीं आया।

शायद दाग ने इन्हीं के लिए कहा था 'हजरते दाग़ जहाँ बैठ गए, बैठ गए। फिर भी न जाने क्यों मुझे डॉ. चौथीराम यादव को लेकर बार-बार ग़ालिब का यह शेर याद आ रहा है। प्राचीन ईरान के महान सम्राट जमशेद का मधुपात्र बहुत प्रसिद्ध है। वह वेशकीमती रत्नों से जड़ा, सोने का पियाला 'सागरे जम' कहा जाता है। बनारस में मिट्टी का जो 'सकोरा', 'कुल्हड़' या 'पुरवा' मिलता है उसे 'जामे सिफाल' यानि मिट्टी का मधुपात्र कहना चाहिए। ग़ालिब कहते हैं -

और बाजार से ले आए, अगर टूट गया
सागर-ए-जम से मिरा जाम-ए-सिफाल अच्छा है।

मेरी बात अगर इस भाष्य से पूरी न होती हो तो बिरहा की ये दो पंक्तियाँ सुन लीजिए -

'बँगरा के जँगरा गवाही मितवा।
तोहरी मिसिरी से मीठ मोर लवाही मितवा।'

अब यह मत पूछिएगा कि 'लवाही' किसे कहते हैं?


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हिंदी समय में दिनेश कुशवाह की रचनाएँ