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कविता

बुनकर की मृत्यु

एकांत श्रीवास्तव


एक

उसने मिट्टी तेल छिड़ककर
आग लगा ली
वह झूल गया फंदे से
उसने छलाँग लगा दी गहरे जलाशय में
खा लिया जहरमाहुर
तो क्या अपने आत्म को हत्या तक
ले जाने का जिम्मेवार वह खुद ?

पंख काटकर पक्षी को छोड़ देना आजाद
जीवन-दान नहीं
जंगल जलाकर हिरणों को
छोड़ देना मरुस्थल में
आखेट है

तुम एक कारीगर से छीन लेते हो उसके हाथ
उसकी थाली का निवाला
एक बुनकर से
छीन लेते हो उसका करघा
तो यह भी वध है हथियार उठाए बिना

कभी-कभी आत्महत्या भी
हत्या की तरह देखी जानी चाहिए।


दो

उनका जीवन खुद एक कपास का झाड़ था
बार-बार हाट में
कौड़ियों के मोल
बिक जाता था जिसका कपास

उनके करघों से
उनकी खरखराती साँसों की
आवाज आती थी

उनकी कमीजों में रफू वाले रंगीन फूल थे
हर ॠतु में
जो सदाबहार थे
उनके समय और समाज का वस्त्र
फट गया था जगह-जगह
मगर वे बुनते थे तुम्हारी चादरें
वे बुन न सके अपने ही जीवन का ताना-बाना
उनके धागे कच्चे थे
बार-बार टूट जाते थे
तीखी धूप में उड़ जाता था उनका रंग
वे चले गए
कपास को धागों में बदलकर
मगर उन धागों से
एक पूरी चादर बुने बगैर
अब तुम जिसे कभी पूरा नहीं कर सकते।

(आंध्र प्रदेश में बुनकरों की सामूहिक आत्महत्या का समाचार पढ़कर। ' द हिंदू ' 08 . 04 . 2001)

 


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