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वह सिक्के गिनता है
पचास के और एक रुपये के सिक्के
धड़धड़ाती ट्रेन में खड़ा एक तरफ
मुसाफिरों से भरी बोगी में
प्रफुल्ल उँगलियों की आँखों से देखता हुआ
वह सिक्के गिनता है
कि ॠतु के पहले-पहले फूल वह गिनता है
वह गिनता है अपनी साँसों के झनझनाते तार
उसकी रगों में दौड़ते
लहू की रफ्तार
तेज हो जाती है
ठीक इसी वक्त
उसकी गर्म साँसें
बारिश की
महकती हवा से मिलकर
मुस्कुराती हैं।
उपहार
नफरत में फन काढ़कर
फुँफकारती है भाषा
धधकती है
जंगल में लगी आग की तरह
बस प्यार में
लीचियों की तरह सुर्ख हो जाती है
गाढ़ी धूप में
पकाती हुई हृदय का रस
शब्द अधखिले रह जाते हैं
भोर के कँवल की तरह
और वाक्य साथ छोड़ देते हैं
यही वो समय
जब वसंत आता है
और मधुमक्खियाँ धरती को
शहद का उपहार देती हैं।
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