'हिंदी' उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़ के प्रांतों में शिक्षा, सरकारी काम-काज और
दैनिक जीवन में आम आदमी द्वारा बोली जाने वाली भाषा है। इसके अतिरिक्त दिल्ली, मुंबई और कोलकाता जैसे महानगरों और गुजरात तथा महाराष्ट्र आदि प्रदेशों में भी
इसे बोलने वालों की काफी बड़ी संख्या है। अन्य अहिंदीभाषी प्रदेशों में भी हिंदी समझने वालों की संख्या अन्य भाषाओं की तुलना में अधिक है। एक अनुमान के
अनुसार लगभग 41 प्रतिशत भारतवासी हिंदी बोलते हैं। यदि इसकी सह भाषाएँ जैसे भोजपुरी मैथिली, अवधी और ब्रज आदि को भी साथ में जोड़ लें तो यह संख्या और बढ़ जाती
है। हिंदी का रचनात्मक साहित्य समृद्ध और वैविध्यपूर्ण है। उसमें निरंतर प्रयोग होते रहे हैं और उसका निरंतर विकास हो रहा है। संचार तथा फिल्म के क्षेत्र
में हिंदी का तीव्र गति से विस्तार हुआ है। हिंदी में पत्रिकाओं, अखबार तथा पुस्तकों का प्रकाशन बढ़ रहा है। हिंदी ने देश और समाज की अस्मिता, सांस्कृतिक
विरासत और देशज ज्ञान परंपरा को भी समृद्ध किया है। कबीर, तुलसी, सूरदास, प्रेमचंद और निराला जैसे अनेकानेक हिंदी रचनाकारों ने हमें सांस्कृतिक रूप से संपन्न
बनाया है। इसके बावजूद आज हिंदी का प्रभावी उपयोग संतोषजनक स्थिति में नहीं है। हिंदी माध्यम के छात्र-छात्राओं को तुलनात्मक दृष्टि से हम ज्ञान और कौशल के
क्षेत्रों में दुर्बल पाते हैं। इसके चलते उन्हें रोजगार पाने के लिए कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है और विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में उनकी
सफलता सीमित रहती है। इसका परिणाम कुंठा और तनाव तो होता ही है, लेकिन उससे ज्यादा चिंताजनक यह है कि मानव संसाधन का एक बड़ा हिस्सा निष्क्रिय और अनुत्पादी
बना रहता है और उसके लाभ से समाज वंचित रह जाता है। ऐसी स्थिति में यह एक राष्ट्रीय चुनौती हो जाती है कि हम इस तरह के हिंदी भाषी मानव संसाधन को कैसे समर्थ
बनाएँ।
हम भाषा में जीते हैं और भाषा की शक्ति हमारे जीवन में उस भाषा के उपयोग पर निर्भर करती है। भारत में अंग्रेजी के लंबे औपनिवेशिक शासन ने भारतीय भाषाओं को हाशिए
पर ढकेल दिया और एक प्रकार के गहरे सांस्कृतिक विस्मरण की प्रक्रिया को जन्म दिया जिसके कारण भारतवासी भारत से या कहें अपने आप से दूर होते चले गए। यह
हस्तक्षेप इतना खतरनाक सिद्ध हुआ कि हमारी अपनी पहचान को लेकर हमारे मन में संशय घेरने लगा। हम दूसरों द्वारा दी गई पहचान को अपनी पहचान मानने लगे और दूसरे के
दिए मानकों को वैज्ञानिक और तटस्थ मान कर उनकी सहायता से अपने आप को आँकने लगे। उसकी विचार-कोटियाँ भारतीय विचारों की उपयुक्तता और प्रासंगिकता को सिरे से
खारिज कर देती हैं। इस प्रकार की नीति के चलते केवल भाषा की ही उपेक्षा नहीं हुई, बल्कि भारत के समस्त देशज ज्ञान, कला, साहित्य और प्रौद्योगिकी को ही हम हेठी
निगाह से देखने लगे। उसके साथ हमारा सीधा रिश्ता धीरे-धीरे कमजोर होता चला गया। आज स्थिति यह हो गई है कि इस तरह के ज्ञान के लिए हमें विदेशों का मुँह जोहना
पड़ रहा है और भारत-विद्या के विभिन्न पक्षों के विशेषज्ञ अब हमें भारत के बाहर मिलते हैं।
किसी समाज से उसकी अपनी भाषा छीन लेने का सीधा मतलब होता है उसे गूँगा बना देना और अभिव्यक्ति से महरूम कर देना। ऐसे में व्यक्ति की अपनी पहचान जाती रहती है।
विदेशी शासकों ने एक पराई भाषा को महत्व देकर पूरे भारतीय समाज को प्रतिमानविरुद्ध ठहरा कर कटघरे में खड़ा कर दिया और अपने आपको गलत मानने के लिए मजबूर कर
दिया। उन्होंने समाज को न केवल एक अनुवादी मानस बनने के एक नए और अंतहीन काम में जोत दिया, बल्कि मन में एक आत्मसंशय और ग्लानि को भी जन्म दिया। इस स्थिति
ने सामाजिक जीवन में पराधीनता को बढ़ाया और एक समृद्ध संस्कृति वाले समाज को नए समीकरण में 'पिछड़ा' घोषित कर दिया। आज भी हिंदी समाज का एक बड़ा हिस्सा इस हीन
भावना से उबर नहीं सका है, पर स्वतंत्र भारत के प्रजातांत्रिक परिप्रेक्ष्य में अंग्रेजी का उपयोग एक हद तक सहजता के बदले बनावटीपन और देश हित के बदले निजी
स्वार्थ साधने का जरिया बनता गया। न्याय आम आदमी की पहुँच से दूर और महँगा होता गया और पुलिस जैसे सरकारी तंत्र के महकमे डरावने और उलझाऊ हो कर शोषक की भूमिका
अपनाते गए। एक विदेशी भाषा को जीवन के केंद्र में ला कर हमने शासक और शासित का नया वर्ग खड़ा कर दिया।
प्रजातंत्र की सफलता के लिए समाज की भाषा को समर्थ बनाया जाना आवश्यक है ताकि समझने, निर्णय लेने और काम करने में सुभीता हो। तभी शिक्षा, स्वास्थ्य, कोर्ट
कचहरी, सरकारी कार्यालय तथा बाजार आदि के विभिन्न उपक्रमों में हिंदी के अधिकाधिक उपयोग से ही सत्ता का विकेंद्रीकरण हो सकेगा और जनता की शासन में भागीदारी बढ़
सकेगी। हिंदी भाषी समाज, विशेषतः युवा वर्ग को आधे-अधूरे मन से किए गए सरकारी प्रयास के कारण आज हिंदी में ज्ञान, कौशल और प्रौद्योगिकी के स्तरीय संसाधनों और
आवश्यक प्रशिक्षण की बेहद कमी है। सरकारी संस्थान जैसे केंद्रीय हिंदी संस्थान, केंद्रीय हिंदी निदेशालय और तकनीकी शब्दावली आयोग तथा विभिन्न राज्यों में
गठित हिंदी ग्रंथ अकादमियों ने विगत वर्षों में हिंदी के लिए कार्य किया है, पर अपेक्षित तालमेल की कमी और संकुचित दृष्टि के कारण सीमित उपलब्धियाँ ही हो सकी
हैं। इस महत्वपूर्ण कार्य को पूरा करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक हिंदी संसाधन केंद्र स्थापित करने की आश्यकता है जो न केवल हिंदी भाषा साहित्य के
अध्ययन अध्यापन को गुणवता दे, बल्कि हिंदी माध्यम से ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न अनुशासनों के मानक प्रस्तुत करे। यह केंद्र हिंदी को और उसके माध्यम से
हिंदी भाषी समाज को सशक्त बनाने के लिए अपेक्षित तकनीकी संसाधन उपलब्ध कराने, स्तरीय अध्ययन सामग्री तैयार करने, अनुवाद की प्रौद्योगिकी तथा हिंदी के
अध्यापन की उन्नत प्रविधि आदि की दिशा में योजनाबद्ध ढंग से कार्य करे तो अच्छे परिणाम मिल सकते हैं। वर्धा स्थित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी
विश्वविद्यालय ने इस दिशा में पहल की है। इसके प्रयासों को संबंर्धित कर राष्ट्रीय हिंदी संसाधन केंद्र को साकार किया जा सकता है।