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					जब आँखें रीत जाती हैं 
					बहाकर सब आँसू, जो बचा रह जाता है 
					तो वह दुख है; 
					जो बचता है हृदय में 
					जब सब भावनाएँ पिरोई जाती हैं 
					शब्दों और पंक्तियों में 
					तो वह कविता है 
					 
					दुख की तरह 
					कविता अनंत है 
					 
					जब भी गोली चलती है, 
					या कोई नन्हा यतीम भूख से बिलखता है, 
					दुख हृदय से सिर उठाता है 
					गोली से घायल सैनिक के रक्त की तरह 
					कविता भी बहती है; 
					गाढ़ी और सख्त होकर 
					अंत में जम जाती है 
					फूल पुष्पित होकर फल बन जाता है; 
					शुष्क, मुरझाया पंखुड़ीरहित; 
					इसी तरह खून, सूखकर काला पड़ जाता है, 
					पपड़ियाँ बनकर खुरचा जाता है 
					वह फिर बहता है 
					खामोश अँधेरे की तरह भीतर ही भीतर थक्का बन जाता है, 
					और उस दर्द से 
					कोई रक्तपिपासु उत्पन्न होता है 
					और घाव को चाटने लगता है 
					 
					पुराना घाव हरा हो जाता है - 
					रक्तिम और मुलायम, 
					और फिर बहने लगता है 
					 
					इस तरह दुख जिंदा रहता है, 
					जैसे हो कवि का जीना 
					और मर जाना 
					  
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