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कविता

फिर बजी घंटी

माधव कौशिक


फिर बजी घंटी
मोबाइल फोन की।

अब हथेली में
सभी संवेदनाएँ धँस रही हैं
शक्तियाँ बाजार की
अपना शिकंजा कस रही हैं
अब जरूरत ही नहीं
वाचालता को मौन की।

वर्जनाओं की चट्टानें
रेत बन कर ढह रही हैं
और एसएमएस के जरिए
भावनाएँ बह रही हैं
जिंदगी पर्याय बन कर
रह गई रिंगटोन की।

आदमी बौना हुआ
पर हो गए टावर बड़े।

दूसरों के पाँवों पर
जैसे जमूरे हों खड़े
अब नहीं मिलती यहाँ
छाया घने सागौन की।

 


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