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कविता

आजकल हँसना मना है

माधव कौशिक


आजकल
हँसना मना है।

शोक में डूबी हुई
चारों दिशाएँ
रो रही हैं
सूर्य की किरणें अभी तक
मुँह ढाँपे सो रही हैं
शीत-युद्धों का अभी तक
क्षितिज पर कोहरा घना है।

बैरकों में बंद हैं
अस्तित्व के
सपने सुहाने
तीलियाँ लेकर चले
हम, आज
अपना घर जलाने
अस्मिता के प्रश्न पर,
संत्रस्त
मानव अनमना है।

देखते ही देखते
सब नग्न
संज्ञाएँ हुई हैं
जन्म से ज्यादा
यहाँ पर
भ्रूण हत्याएँ हुई हैं
वृक्ष की जड़ का विरोधी
हो गया
उसका तना है।

 


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