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कविता

दौड़ गए विपरीत दिशा में

माधव कौशिक


दौड़ गए विपरीत
दिशा में
सूरज के सब घोड़े।

पानी की पगडंडी
पर जब
लोग चले बालू के
अंधी-अंधियारी
रातों में
भाव चढ़े जुगनू के
तितली के पंखों
ने झेले
काँटों भरे हथोड़े।

बुझे दीयों से
रोज आरती
करते रहे शिवाले
मस्जिद के गुंबद
पर फैले
असमंजस के जाले
क्या जाने कब
घर लौटेंगे
आखिरकार भगोड़े।

गँवई-गँवार गाँव की
गलियाँ
पंचों की महतारी
पोखर वाले हर
बरगद की
गरदन पर है आरी
अपराधी सी
चौपालों ने
खाए सबके कोड़े।

 


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