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कविता

कितने मायावी लगते हैं

माधव कौशिक


कितने मायावी
लगते हैं
अंधे युग के बौने लोग।

मन के अंधे
अंधियारे में
इतना ज्यादा
रमते
रात-रात भर
खुली सड़क पर
खुल कर मजमें जमते
मगर भोर होते ही
थक कर
चल पड़ते हैं सोने लोग।

उँगली कटी
किसी तिनके से
बलिदानी बन बैठे
जली हुई रस्सी
की तरह
भस्म हुए पर ऐंठे
हँसते-हँसते
क्या जाने क्यों
लग जाते हैं रोने लोग।

भोले इतने हैं
किरणों को
अपराधी बतलाते
अलख जगाते
जोगी सूरज को
दोषी ठहराते
सिर्फ लहू से
दाग लहू के
लग जाते हैं धोने लोग।

 


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