अज्ञेय का पत्र केदारनाथ अग्रवाल के लिए
मेरा पता : पोस्ट बॉक्स 864
नयी दिल्ली
25.3.53
प्रिय केदार जी,
आपका 10.2.53 का पत्र मिला था। उस समय कार्य व्यस्थ होने के कारण केवल आवश्यक कार्रवाई करके रह गया, पत्र की इतर बातों का उत्तर, सोचा, बाद में निजी तौर पर दूँगा।
आप, जान पड़ता है, हर बार अप्रासंगिक बातें करके ‘स्पष्टवादिता’ की दुहाई दे लेते हैं। अब स्पष्टवादिता के नाम पर दो एक बात मैं भी कहूँ तो क्षमा करें।
आपका पत्र उस कुंठित मनोवृत्ति का परिचायक है जो, खेद के साथ कहना पड़ता है, अधिकतर ‘प्रगतिवादी’ लेखकों की होती है। वे स्वत: अपने को सबकी ओर से बन्द करके, पूर्वाग्रहों और आधारहीन विश्वासों धारणाओं का पुंज बन कर, दूसरों को दोष देने चलते हैं और स्वयं नहीं देखते कि वे किस संकीर्णता के शिकार हैं।
रेडियो की बात नहीं कहता- उसके बारे में भी आपकी धारणाएँ भ्रान्त हैं ऐसा समझता हूँ, पर उसकी सफाई देने से मुझे क्या मतलब? वह स्वयं जाने। पर आप को सर्वत्र कुचक्र क्या इसीलिए नहीं दीखता कि आपने अपने को यह विश्वास दिला लिया है कि जिसे आपने ‘दुश्मन’ गिन लिया वह ज़रूर कुचक्री भी होगा ही?
मेरा पत्र पाकर आपकी ‘स्वाभाविक प्रक्रिया’ यह हुई कि आप ‘उपेक्षा कर जायें’ और ‘उन महामानी अज्ञेय’ को लिख दें कि उनका ‘आप पर कोई अधिकार नहीं है।’ धन्य है इस प्रक्रिया की ‘स्वाभाविकता’। मैं आपसे पूछ सकता हूँ, कब कोई ऐसी बात हुई जब आप ने सौजन्य प्रकट किया हो और ‘अज्ञेय’ ने उपेक्षा की हो? बल्कि इससे उलटे उदाहरण ही कदाचित् गिनाये जा सकते। एक पत्र का उत्तर देने के लिए आपको ‘महामानवतावाद’ की ज़रूरत पड़ी- साधु, साधु हे महामानव, जिसने उस आकाशभेदी पीठिका से उत्तर कर इस निरे मानव की ओर झाँका।
आपने मुझ से अपनी पुस्तकें न भेजने की शिकायत की है। स्वयं आपने कभी पुस्तक भेजी, यह नहीं पूछूँगा, क्योंकि मैं साहित्यिक मात्र से नहीं माँगता, केवल स्नेहियों से माँग सकता हूँ। मैं अपने स्नेही जनों को पुस्तकें स्वयं भेजता हूँ, वह स्नेह की अभिव्यक्ति होती है। साहित्यिकों में भी उन्हें भेजता हूँ जो पढ़ेंगे या पढऩा चाहेंगे। आप इस श्रेणी में हैं, इसका कभी कोई संकेत नहीं मिला। यह जानता हूँ कि आपकी बिरादरी के लोग गालियाँ देते हैं और मुझे निरन्तर isolate और lequidate करते रहते हैं क्योंकि मैं (आप ही के शब्दों में!) ‘दुश्मन’ जो ठहरा- पर चोरी छिपे मेरी पुस्तकें पढ़ते हैं, अधिकतर गालियाँ देकर अपना ‘धर्म’ निबाह चुकने के बाद। यह जानता तो हूँ, पर इसके लिये किताबें बाँटने का दम्भ क्यों करूँ? आपको मेरे संग्रह में अपनी कविताएँ देने या न देने के प्रश्न पर ‘अनुमति’ लेनी पड़ी थी। मेरा साहित्य पढऩे की अनुमति आपने ले ली? मुझे सूचित कीजिएगा, कौन-सी पुस्तक पढऩे की अनुमति मिली, कौन सी आप पढऩा चाहेंगे, मैं सहर्ष भेजूँगा। यह जानते हुए भी, कि उसके बाद आपको उसके सम्बन्ध में क्या राय प्रकट करनी होगी।
इस समूचे पत्र को धृष्टता न समझें स्पष्टवादिता है, पर विनीत। आपके मानसिक स्वास्थ्य की जिसका पहला लक्षण है स्वतन्त्र चिन्तन मुझे बहुत चिन्ता है, उसकी रक्षा और वृद्धि की कामना करता हूँ।
आशा है आप प्रसन्न हैं।
शुभैषी
(ह. वात्स्यायन)