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कविता

हिंदी के लेखक के घर

ज्ञानेंद्रपति


न हो नगदी कुछ खास
न हो बैंक बैलेंस भरोसेमंद
हिंदी के लेखक के घर, लेकिन
शाल-दुशालों का
जमा हो ही जाता है जखीरा
सूखा-सूखी सम्मानित होने के अवसर आते ही रहते हैं
(और कुछ नहीं तो हिंदी-दिवस के सालाना मौके पर ही)
पुष्प-गुच्छ को आगे किए आते ही रहते हैं दुशाले
महत्व-कातर महामहिम अँगुलियों से उढ़ाए जाते सश्रद्ध
धीरे-धीरे कपड़ों की अलमारी में उठ आती है एक टेकरी दुशालों की
हिंदी के लेखक के घर

शिशिर की जड़ाती रात में
जब लोगों को कनटोप पहनाती घूमती है शीतलहर
शहर की सड़कों पर
शून्य के आसपास गिर चुका होता है तापमान, मानवीयता के साथ मौसम का भी
हाशिए की किकुड़ियाई अधनंगी जिंदगी के सामने से
निकलता हुआ लौटता है लेखक
सही-साबुत
और कंधों पर से नर्म-गर्म दुशाले को उतार, एहतियात से चपत
दुशालों की उस टेकरी पर लिटाते हुए
खुद को ही कहता है मन-ही-मन हिंदी का लेखक
कि वह अधपागल 'निराला' नहीं है बीते जमाने का
और उसकी ताईद में बज उठती है सेल-फोन की घंटी
उसकी छाती पर
गरूर और ग्लानि के मिले-जुले अजीबोगरीब एक लम्हे की दलदल से
उसे उबारती हुई

 


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