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मेरे में तो एक देश, कोई देश नहीं बचा
सूरीनाम जैसे सूर्य इधर उगता है
उधर ढलता है
भारत जैसे परछाई
नींद का अँधियारापन सो गया हो जैसे
सूरीनाम पर भरोसे का भाव टूट गया
मिला जितना मिला, अरे देश ही तो था।
उसके वेष में मेरे भाग्य में क्या बदा हुआ है।
आदमी, आदमी का नहीं, देश वेष के लिए क्या कहे?
वैसे तो अपना जीव अपने लिए ही नहीं होता है
दोनों हाथ क्या बराबर ढोते है?
दिमाग तो यही कहता है कि नाटक का पर्दा खुलता है
नाटक होता है
लेकिन क्या आँख का पर्दा खुलता है
पर, नाटक दिखाई देता है।
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