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कविता

पुरानों के बुढ़ापे की अंतिम भेंट

जीत नाराइन


पुरानों के बुढा़पे की अंतिम भेंट
याद में अटकी पडी़ है

सूखा चेहरा और कडा़ होता गया
किसी-किसी में दरार भी फट-फट पडी़
प्राण तो बाद में चले गए

मरी हुई लकडी़ की तरह सूखा पडा़ है कोई
कोई गीला है जैसे पानी में फूल गया

इतिहास लेख, याद और कल्‍पना के बयान जब निकले
उन लोगों की आह कम से कम शोक की स्‍याही तो बनी
हमारे ऊपर उसके छींटे थे
और उन लोगों का मांस तो चाँपता जा रहा है
''कैंसर-है-कैंसर'' कहते हैं पेशेवर डाक्‍टर
और वे कहाँ, इन्‍हें तो इंद्रियाँ समझें
उनका नाम कलकतिया है, कलकतिया...

 


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