अ+ अ-
|
हर फैलाव में रात और काली है
अग्नि के पर्याय
नहीं लगाते आग,
नायक की भौं का सितारा
बमुश्किल दिखाता है
अनिश्चित रास्ता।
एक खोये शहर की तयशुदा गलियों की याद
खींचती है मुझे,
भू-ग्रस्त दौड़ता हूँ,
रकाब के जोड़े के बारे में सोचता
भ्रमित मैं
फिर से लिखता हूँ पतवार,
उजला घास का मैदान
और दूर की एक पल्ली।
हर कथा का निश्चित अंत देखते
भग्न टखने को ताकते गूँगे की तरह
देर हो चुकी है तोड़ने में
मायावी आवाजों का जादू,
या भ्रम और पीड़ा में निमग्न
अपनी आवाज की चैलियाँ।
मै छलाँग लगता हूँ
और बच जाता हूँ डूबने से
अपने दाँतों में दबाये
एक कविता।
|
|