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कविता

विपरीत मौसम

राजेंद्र प्रसाद पांडेय


मौसम ही कुछ इतना विपरीत है
कि मेरी रोटियों को घास न डाल कर
मरघट पर भरपेट दावत उड़ा
सो रहा है शेरू अलाव की गर्मी में टाँगे पसारे

मैं चला आया हूँ अपने खेत पर अकेला
जहाँ मुझे देख रहे हैं
टकटकी लगाकर
मेरे ही शरीर से चूकर उग आये
श्रम-सीकरों के बिरवे

मर्फिया-सी देह में धँस रही है रात
सन्-सन्-सन्-सन्
और मेरे सारे कंकाल गन्-गन्-गन्-गन्
कर रहे हैं जुगलबंदी

खाये-पिये बेशर्म चेहरे-सा ऊपर
चमक रहा है चाँद
नीचे है गर्म-गदराई धरती
दोनों के बीच हथेलियाँ मसोसता मैं हूँ
मुट्ठियों के खोखले आसमान के साथ
थूका जाने के लिए तैयार
दाँतों और ओठतल्लों द्वारा
निचोड़ ली गयी सुरती की तरह

झूठ की तरह चमक रहे हैं ओसकण
सच की तरह दुबकी है परछाईं

इस 'हुआ-हुआ' से साफ जाहिर है
कि अभी तो पहला ही पहर बीता है
अभी और भी गहरायेगी रात
धीरे-धीरे आयेगी एक दीक्षांत-समारोही शिष्टयात्रा
और सारे घास-फूस पर पसर जायेगी

इससे पहले कि ये सब मिलकर छीनें
मुझसे मेरा स्वत्व
मैं खुद ही सौंप दूँगा इन्हें अपनी फसल
उसे बचाने के लिए
जो हरेक खूँद से हमेशा बच रहता है

बहरहाल! इतना ही काफी है
क्योंकि मौसम ही कुछ इतना विपरीत है

 


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