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कविता

मातृभाषा

राजेंद्र प्रसाद पांडेय


चोट लगती है तुम्हें
छाले पड़ जाते हैं मुझे
वसंत छाता है तुम्हें
इतरा उठते हैं मुझ पर फूल
ओ मेरे औरसों!

तुम्हारे शरीरों से
पसीने की तरह
आत्माओं से
उद्गारों की तरह
हृदयों से
करुणा की तरह
विगलित पयस्विनी
हूँ मैं
ओ मेरे पूर्वजों!

यह तो खून-खून का संबंध है
जो कुछ तुम्हारी आँखों में
छलछलाता है
वही मेरे खून में
बह जाता है
जो कुछ भी तुमने भोगा है
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
उसी से मैं भी
चढ़ती रही
दैहिक विकास के सोपान
और आज भी
कंधे-से-कंधा मिलाये
मैं खड़ी हूँ
तुम्हारे साथ
ओ मेरे प्रेमियों!
और खड़ी मिलूँगी
मैं वहाँ
जहाँ तुम अपना
आज और कल भूल
गैरों के तिलिस्मों में
आँखें फाड़े
उँगलियाँ दाँतों तले दाबे
मंत्रमुग्ध होगे
आत्मविरत
ओ मेरे अपनों!

 


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