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कविता

पर्जन्य-पिता

राजेंद्र प्रसाद पांडेय


धूपछाँही व्यक्तित्व वाले
आसमान में
बहुत ऊपर चढ़ कर
गुरु-गंभीर शब्दों के साथ
स्नेहिल जल बरसते
प्रजाओं के लिए
अविरल अन्न बन
आँतों में पचते
ओ हमारे पर्जन्य!
तुम कहाँ हो?

कहाँ हो, ओ उपहितचैतन्य!
पंचभूतों के आधायक
सुफला बनाते
प्रकृति-धरित्री को
स्फूर्त ऊर्जा के साथ
अणु-अणु में बीजारोपित
पुरुष पुरातन
ओ पितः
तुम कहाँ हो?
ओ वीतानुवीत!

ओ सततानुसतत!
ओ भावानुभाविन्!
ओ पूज्य जनक!
ओ पूज्य जात!
हम सुन रहे हैं
हर कहीं से तुम्हारी पुकार
''मैं यहाँ हूँ
मैं यहाँ हूँ
मैं यहाँ हैँ''
और फिर पूछते हैं
''तुम कहाँ हो?
तुम कहाँ हो?
तुम कहाँ हो?''

इन्हीं प्रश्नों पर घूम रहा है
हमारे बीच का संवाद-चक्र
इन्हीं पर टिकी है
पृथ्वी की धुरी
इन्हीं में है
पर्जन्य का पिघलाव
ओ सविता पिता!
रवियों, खरीफों और जायदों की
गंधों में व्याप्त
करुणापूरित मुदिता में
हमारे अव्याकृत प्रश्न
मौन में भी हैं स्वयं उत्तरित
हर समस्या की सहज निराकृति
अपने साथ
ले जा सकोगे क्या?
छोड़ सकेगी वह
तुम्हारी मार्गदर्शक तर्जनी?

उठ भी जाएँ
तुम्हारे स्वाद वाली
हमारी अंतड़ियाँ
धुँधले पड़ भी जाएँ
तुम्हारे शब्द-सम्मोहन
छूट भी जाएँ
खेत-खलिहान
पेड़-पौधों
मर-मवेशियों की उत्कंठा
झीना पड़ भी जाये
दोस्त-पड़ोसी
सगे-संबंधी
बैरी-विरोधी
के प्रति राग-द्वेष
पर हमारे बीच से
क्या तुम उठ सकोगे विभर्ता!
हमेशा-हमेशा के लिए?

ओ हमारे प्रजापति!
कच्ची उम्र में जो तुमने
हमें भीतर से सहारा देते
बाहर से पीट-पीट कर
गढ़ा है
परिपक्व हो जाने पर
हमारे इन आकारों में
समझदार आँखों ने
तुम्हारे तन का खून
हाड़ की मशक्कत
और आँखों का पानी
बार-बार पढ़ा है

 


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