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कविता

वह शतरूपा

लीलाधर जगूड़ी


एक स्‍त्री मुझे पलटकर देखती है एक नजर में सौ बार
देखते देखते
वह शतरूपा स्‍त्री बदल देती है मुझे एक ही जीवन में
अनेक बार
नाभि से जिसकी खिलता है हजार पंखुड़ियोंवाला कमल
दूधों नहाते और पूतों फलते हैं हम
एक सिर एक उदर एक विवर ढाँपे वह रूपांबरा दिखती है
मुझे सृष्टि के अनुरूप मुक्‍त करती हुई
एक नयी शतरूपा खेलती है गोद में मिलता है एक नये
मनु का उपहार
पलटकर देखती है हर बार वह प्रथम शतरूपा एक नजर में मुझे सौ बार
और सृष्टि के मूल से बाँध देती है।

 


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